—-ये जो बीज [दीक्षा ] दिया गया है,ब्रम्ह विद्या दी गई है, धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए,उपरामता को प्राप्त कर ,धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को परमात्मा-अंतरात्मा में स्थिर करते हुए,दूसरे विचारों को मन में न आने दो ,इससे सारे क्लेश,कर्म,विपाक ये सब साफ होते जाते है।
—मेरी ही प्रीति बनी रहे/रहेगी।दृश्य या ध्वनि होते हुए भी मन
-बुद्धि के साथ-बुद्धि -आत्मा के साथ संलग्न है, तो मन पर कोई परिणाम नहीं हुआ/संस्कार बने नहीं।जीवित रहते हुए इच्छारहित आयु व्यतीत करना।ये दोनों साम्यावस्था है।
—-इहलोक ,परलोक के भोगों से वैराग्य ! ईश्वर को कर्ता मानकर उसी के आधीन रहकर कार्य करना,वहां मैं दूर हो जाता है।कराने वाला दूसरा होता है। यह तीव्र वैराग्य में होता है।
—-अभ्यास और वैराग्य से मन वश में हो सकता है,मन का निरोध अभ्यास और वैराग्य में होता है।
अभ्यास =आत्मा- योग के लिए ध्यान का अभ्यास, जिन-जिन विषयादि में मन जाता है , वहां से हटाकर पुनः पुनः मुझ में याने अपने अंतरात्मा में लगा, इस प्रकार अभ्यास से वैराग्य आता है और वैराग्य से यह प्रमथन स्वभाव वाली मन वश में होता है !
।।श्री गुरुजी वासुदेव रामेश्वर जी तिवारी।।