आत्मबुद्धि

  • हम कुछ करें या न करें परन्तु हमारे भीतर जो शक्ति है कुन्डलिनी शक्ति,महाशक्ति,दिव्य शक्ति वो सदा सक्रिय है हम जागें या सोयें वो अपना काम निरन्तर करती है। सतोगुण माने ट्रूथफूल,एक सत के सिवाय कुछ भी नहीं।सतोगुण प्रधान मिलना या हो जाना बहुत कठिन हैं।
  • मानव प्राणी अल्पज्ञ है,आयु बिल्कुल कम है और अनेक जन्मों के कर्म संचित है,इसलिए अपने आपको जानना चाहिए। जड़ चेतन का जो संगम हुआ है वही हम लोग है जिन्हें मनुष्य कहा है।आत्मा चेतन है बुद्धि जड़ है।आत्मा दिव्य है,शुद्ध बुद्ध मुक्त है।बुद्धि विकारयुक्त है,काम क्रोध लोभ मोह मद घृणा शंका भय जुगुप्सा लज्जा स्तुति कुलशील मान आदि ये सब बौद्धिक है।आत्मा की देह बुद्धि ज्यों ज्यों सत्य की ओर उन्मुख होती जायेगी,आत्मबुद्धि होती जायेगी।
  • दिव्य स्वरूप हमारा ज्ञान स्वरूप है।बुद्धि आत्मा के योग से आत्मबुद्धि हो जायेगी।वह तुम्हीं हो। सहज माने साथ साथ और हर काम होते रहेगा तत्व से मगन सब कुछ होता जा रहा है।जिसकी बुद्धि में सत्य के सिवाय कुछ भी न रहे उसे ऋतम्भरा कहते है।
  • आत्मा के गुण उसमें उदय होते है वो जैसा सोचे जैसा चाहे वैसा होता है।अन्तर रहित होकर आचरण में उतरना चाहिए।निरन्तर होना चाहिए। कर्तापन से दूर हुए की स्वभाव आने लगता है।यही मोक्षानन्द की अवस्था है।शांत निर्लिप्त और आनन्दमय भाव ही स्वभाव दर्शन है।
  • स्त्री या पुरुष तो बाहरी रचना है,एक ज्योति के सिवाय ब्रम्हान्ड में कुछ भी नहीं है। अंदर बाहर सब जगह ज्योति है,आत्मा स्वयं ज्योतिर्भवती।सबमें एक ज्योति है यह कहने की बात नहीं सत्य है।
    ।।श्री गुरुजी।।

  • द्वेषी जनों से भी प्रेम करो,अंधे को जैसे रंग नही दिखता,वैसे ही दूसरों के दोष न दिखे।
  • प्रत्येक में ब्रम्ह का दर्शन करो,जड़ हो या चेतन।निष्काम व्यक्ति ही आत्मा का दर्शन कर सकते है,सर्वदा अभ्यास के द्वारा मन को अनन्तभाव में भावित करने पर, यह हो सकता है।
  • अभी तक जिसे,तू कहता है,मैं हूँ,जब ऐसी वृति रह जाती है।जब वह और मैं में भेद नही रह जाता,मैं हूँ।तब आत्म साक्षात्कार सुलभ हो जाता है।
  • किसी महिला को भोज्य न समझकर अपना ही रूप(ज्योतिर्मय मैं हूँ)समझना चाहिए, इससे कामेच्छा समाप्त हो जायगी।
  • सद्गुरु के प्रति श्रद्धा से सब प्रकार के संशयों का नाश होकर ,लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
    ।।श्री गुरुजी।।

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