आत्मोद्धार

जहाँ से हम आये है,वही हमे जानना है,वही कर्तव्य है और यही धर्म है ।
जब तक तुम्हे आत्मा सर्वज्ञ है,पर भरोसा नही होगा, जब तक तुम अपने आत्मा पर भरोसा नही करोगे,तब तक तुम मारे मारे फिरोगे,कुछ भी हाथ में नही आयेगा, चाहे तुम कितना ही सेक्रिफाइस करो,कितना ही बाटो, स्वर्ग नर्क के सिवाय छुटकारा नही,तुम समर्थ हो नही सकते,तुम्हारा अभाव दुर नही हो सकता ।
जिस गुण या शक्ति के विकास से सत्य या तत्व की प्रतीति हो यह सम्यक् दर्शन है।
नम्बर दो,सम्यक् ज्ञान मैं, तु, मैं मेरा तै तेरा आदि आदि जो कुछ काषादि भाव और जीव, जीव किसे कहते है,जीव और आत्मा की संधि की एक रूपता जिससे बोध हो ,यह सम्यक् ज्ञान है । सम्यक् दर्शन को मानो और अभ्यास में उतरना पड़ता है,और वो तुम्ही हो तुम्हारे अंदर सब कुछ है,ये सम्यक् ज्ञान है ।
सरल सहज आत्मोद्धार है,राग द्वेष काम क्रोध ,लोभ,मोह, मान,मत्सर ,आदि की निव्रति से प्राप्त होने वाला स्वरूप ।
अखण्ड मण्डलाकारम व्याप्तम् येन चराचरम्…….
प्रकाश ही प्रकाश , इस शरीर में अग्नि प्रसुप्त है,जला देने पर चारो तरफ प्रकाश ही प्रकाश है, अखण्ड जो ज्ञान है, चराचर में जो व्याप्त है, कण कण में है, अया है,जर्रे जर्रे में लेकिन आँखो में निहा होकर आँखो में छुपकर आँखो का आँख, आत्मज्योति वो ज्ञान चक्षु ,वो अखण्ड हो जाय ।आत्मा स्वयं ज्योतिर्भवती ,इस परम् तत्व को प्राप्त होता है,यही परम् है,यही परमपद है,यह सम्यक् चरित्र है।
जिसे मोक्ष,ऐसा भी नाम दे दिया है ।
। श्री गुरूजी ।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *