एक ही साधे सब सधै

आध्यात्म -आत्मज्ञान और विज्ञान अलग-अलग नही है !

आत्मज्ञान, विज्ञान की पूर्णता है ,चरम है ! इसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता ,कुछ भी अप्राप्त नहीं होता !
इसे ही वेदांत कहते हैं .वेद=ज्ञान !वेदांत अर्थात् ज्ञान का अंत ,जहां ज्ञान का सीमा समाप्त हो जाय ,ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो जानना शेष रह जाय ! आज हमारे पास यही नहीं है इसीलिए हमारी दुर्गती है !
——– भगवान श्री कृष्ण-अर्जुन से कहते है, “हे अर्जुन! यह ज्ञान (अविनाशी-योग) को मैंने सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत् मनु से कहा, मनु ने राजा इक्ष्वाकु से कहा, इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना ,कुछ काल पर्यन्त यह ज्ञान पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया है, वही ज्ञान आज मैं तुझे दे रहा हूं , तू मेरा प्रिय शिष्य है, सखा है तूझे ज्ञान का रहष्य विज्ञान सहित कहूँगा जिसे जानने के बाद कुछ भी ज्ञान जानना व प्राप्त करना शेष नहीं रह जायेगा ,मेरे और तेरे में कोई भेद नहीं रह जायेगा ,ज्ञान -सामर्थ में पूर्ण हो जायेगा !
इस प्रकार आत्म-योग[ज्ञान] के लिए,अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ध्यान के अभ्यास से आत्म-योग की दीक्षा देते हैं ! —-
——–अर्जुन कहते हैं -प्रभु! मन बड़ा गतिमान है इसको रोकना वायु को रोकने के समान दुष्कर है !
भगवान -नि:संदेह ये प्रमथन स्वभाव वाला मन को रोकना वायु को रोकने के समान दुष्कर है ,परन्तु अभ्यास अर्थात् जिन-जिन विषयादि में मन जाता है वहाँ से हटाकर पुन : पुन: मन को आज्ञाचक्र में मुझ में लगा इस प्रकार अभ्यास से वैराग्य होगा और वैराग्य से ये प्रमथन स्वभाव वाला मन वश में होने में शक्य है ! इस प्रकार मन वश में हुवा = दुनियावश में – इसी को एक ही साधे सब सधै कहा गया है-

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥

भावार्थ : यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस शब्दादि विषय के निमित्त से बाहर संसार में विचरता है, उस-उस विषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमात्मा [अंतरात्मा] में ही निरुद्ध करें॥26॥

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥

भावार्थ : क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शांत है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शांत हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनंद प्राप्त होता है॥27॥ (-श्रीमद् भगवत् गीता)
-बाहर के पट मुंद के तू भीतर के पट खोल रे तोहे हरि मिलेंगे!

टीप —-योग अर्थात् बुद्धि का आत्मयोग [आत्मा में समाहित होना ,मिलना ,बुद्धि को आत्मा [अंतरात्मा ] से समाधान प्राप्त होना ही समाधि है ,योग है ! इस स्थिति में मन सहित इंद्रिय अपने वश में होता है,व बुद्धि आत्मा के समाधान [निर्देशन ] से कार्य करती है ! जिससे यम= [ अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह ] ! नियम = [ शौच ,संतोष ,तप ,स्वाध्याय , ईश्वर प्रणिधान ] ! प्राणायाम , प्रत्याहार ! ये सब सहज व्यवहार [आचरण ] में आ जाता है ! इसीलिए पूर्ण ज्ञानी सद्गुरु ,साधक को यम -नियम-आसन-प्राणायाम से पहले सीधा प्रत्याहार -धारणा- ध्यान से समाधि [आत्मयोग] कराते है !
इसी को एक ही साधे सब सधै कहा गया है —

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