डेस्टिनी

—-बाहर के आकर्षण से ही सब कृतियाँ होती रहती है,अंतिम स्वास पर्यन्त कोई भी उसका भरोसा नहीं करता कि वो कब बदल जाएगा।शरीर के नौ द्वारों से हम बाहर के संस्कार लेते है और उस ओर खिंचते चले जाते है। मनुष्य के मूल संस्कार इतने जबरे है कि वो जानता है कि ये अच्छा नहीं,फिर भी उस ओर चला जाता है।वो बाध्य होकर सब करता है।आज हमारी बुद्धि भौतिक प्रलोभनों की ओर इन्हीं मूल संस्कारों के कारण जाती है।


—-विषय में आपके जो संस्कार है ,जो मधुर स्मृतियां है, मन-बुद्धि में,रस की जो अनुभूति है जिव्हा में रसना में उससे क्या आप इस तरह छुटकारा पा सकते है?
केवल न धारण करने से,न खाने पीने से,रस न लेने से,क्या वे संस्कार नष्ट हो जाएंगे?नहीं,वो जा नहीं सकते क्योंकि हम लोगों ने उन मूलसंस्कारों के आधार से अपनी आदत बना ली है,व्यसन बना लिए है,हम विचारों के आधीन है।


—-हम कुछ नहीं जानते और कहते है सब जानते है।
मनुष्य सुख दुख मोह लोभ मृत्यु भय और कामवासना इत्यादि को पूर्ण करने के लिए चाहे अनचाहे नियम बना लेता है।
तो क्या हम क्लेश को ही आनन्द मानकर उसमें चले जाय?नहीं। आत्म- योग के लिए ध्यान का अभ्यास के द्वारा गुरुदिश मार्ग से चलने पर ये क्लेश अपने आप मिट सकते है,आप समर्थ हो सकते है,आप ऐसी ताकत प्राप्त कर सकते है कि आप अपनी डेस्टिनी को बदल सकते है,इसी जन्म में बदल सकते है।


—-गुरुदिश मार्ग से सद्गुरु सत्पुरुष के आदेशानुसार जहां लक्ष्य लगाने कहा जाय वहां लक्ष्य लगाओ और बिना सन्देह शंका व संशय के आदेश जो ध्यान के अभ्यास है उसका पालन करें तो वो उसी प्रकार ओट देता है जैसे सूर्य अपने प्रभाव से किरणों के द्वारा अंधकार को दूर कर प्रकाश को ओट देता है।


—-आप भी अभ्यास करके आत्मशक्ति प्राप्त कर सकते है,उस परमपद परमधाम में अपने आपको ले जा सकते है।लेकिन वो मार्ग है अन्तरमार्ग।आत्मा जो परम् है।तो ऐसी तैय्यारी होनी चाहिए जिस प्रकार हम बाहर के अभ्यास अध्ययन की तैय्यारी करते है,उसी प्रकार तन्मयता तल्लीनता दृढ़ निश्चय से उस परमपद को प्राप्त कर लेना चाहिए।


—-तो अंदर एक मार्ग है सुषुम्ना में वो रास्ता खोलना पड़ता है,वो सब कुछ है।आपने जो बाहर की प्लानिंग बनाई है वो किसी काम की नहीं।भीतर की धारणा भीतर की प्लानिंग चाहिए,सद्गुरु द्वारा जो दी गई है।जैसा आपके पास रहकर,सूझबूझ देकर,आश्वासन देकर, आदेश दिया गया उस प्रकार से बुद्धि में रखकर अभ्यास में लग जाना चाहिए और किसी प्रकार की चिंता नहीं करनी चाहिए।लेकिन हम चिंता करते है कि हमारा होता नहीं,तो जब ये तुम्हारा आ गया तो सब गया।फिर आप शरण में कहाँ आए?शरण याने जितना अधिक से अधिक दे दिया गया।कम से कम बीस मिनट,दस मिनट,पांच मिनट,दो मिनट तो करो,इससे अधिक तो चाहिए भी नहीं।ये अपनी आदत बना लो।ये धर्म है।


—-हम उसको आत्मा कहते है वो हमारे भीतर है,सब जगह है,सबमें समान है।जैसे जैसे आप आत्मा की पहुँचते जाएंगे,वैसे वैसे ये काम क्रोध लोभ मोह भय आदि ये सब बदलते जाएंगे।आपकी बुद्धि में जो दोष दुर्गुण है वो सब बदलकर गुण हो जाएंगे।वो डेस्टिनी को बदल सकता है सब टाल सकता है।ये विषय नहीं विषयातीत है।समाज व राष्ट्र सब प्रसन्न होंगे,आपस के बैरभाव सब दूर होंगे।


—-जब तक हम अपने आपको नही जानते हम कुछ भी नहीं जानते।तब तक न हममें कोई क्षमता है न हमारा कोई विश्वास करता है,हम अपने पर विश्वास नहीं करते तो हम पर कौन करेगा?इसलिए पहले हम अपने आप को जानें।राम कृष्ण आदि सब हमारे जैसे है अनेक जन्म संसिद्धि,अनेक जन्मों के बाद कृष्ण कृष्ण हुए,तात्पर्य यह है हम पहले अपने आपको जानें।यह अधिकार हर मानव प्राणी को है,यहां सारे भेद समाप्त हो जाते है।
।।श्री गुरुजी।।

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