
—-जो असली भक्त है-वे ज्ञान और भक्ति के ऐश्वर्य में मस्त रहता है।
पांडवों को देखो,कितने एवं कैसे संकट उठाये पर. कृष्ण में उनका विश्वास तिल मात्र भी कम न हुआ।
—-स्मरण रहे-तत्व( शक्ति) एक ही है, केवल नाम में भिन्नता है,जो ब्रम्ह है,वही परमात्मा है,वही भगवान, सद्गुरु है।
ब्रम्हज्ञानी उसे ब्रम्ह कहते है,योगी-परमात्मा कहते है,भक्त उसे भगवान कहते है।
—-दासी सब कार्य करती है,पर किसी को अपना नहीं कहती है साधक को सभी काम-अलिप्त भाव से करना चाहिए।
चिंताओं और दुखों का रुक जाना ही -ईश्वर पर पूर्ण निर्भर रहने का सच्चा स्वरूप है।
आत्म स्थिति में-न तो चिंता है,न तो चिन्तन,वह आनन्द सागर है,न संकल्प,न इच्छा,न परिणाम ,यह मुक्त या आनन्द अवस्था की उपलब्धि है।
—-नित्य चैतन्य,अयं आत्मा-इसका बोध हमेशा बना रहे कि मैं-आत्मा हूँ।
जो बोध स्वरूप है,जिसका रूप आदित्यवर्ण है-जितना और जब भी समय मिले उसी में रमे रहो।
ऐसे परमात्मा,परमानन्द के दर्शन हेतु भीतर से -अकुलाहट होने पर ही सफलता शीघ्र सम्भव है।
आत्माराम (परम ब्रह्म- ईश्वर -परमात्मा) कैसे मिलते है?धैर्य से,विश्वास से।
उनके द्वारा बताये गये रास्ते को आचरण में लाने पर ज्ञान होता है।
।।श्री गुरुजी।।