धर्म


1.कर्म करना धर्म है ! पर कौन सा कर्म ?
कर्तव्य कर्म अर्थात करने योग्य कर्म और वह है-निष्काम कर्म !
आत्म साक्षात्कार [आत्मज्ञान प्राप्ति ] हेतु किया हुवा कर्म ही निष्काम कर्म है ,बाकी सब सकाम कर्म है !
सांसारिक निर्वाह के लिए जो कर्म किया जाता है उसे उपजीविका कहते है ! व आत्म साक्षात्कार [आत्मज्ञान प्राप्ति] हेतु किया हुवा कर्म को जीविका कहा गया है!
2.पुण्य और पाप दोनों बेड़ी [ बंधन ] है ,एक सोने की बेड़ी है दुसरा लोहे की बेड़ी है ,दोनों ही बंधन का कारण है ,आत्म ज्ञान होने पर मै अर्थात कर्तापन का भाव समाप्त हो जाता है ,फिर न पुण्य संचय होता है न पाप -यही मुक्ति है! व यही जन्म का मूल उद्धेश्य है ,धर्म है ! इसके बाद कुछ भी जानना व प्राप्त होना शेष नही रह जाता, वह निश्चल -निष्कपट- निर्विकार-निराभिमानी, ज्ञान-सामर्थ व रूप में पूर्ण-समर्थ ,ईश्वर का सगुण रूप हो जाता है !
3.आत्म ज्ञान होने पर मै अर्थात कर्तापन का भाव समाप्त हो जाता है ,फिर न पुण्य संचय होता है न पाप -यही मुक्ति है ! फिर वह निष्काम कर्म है


अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

अर्थात : कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म अर्थात कर्तव्य कर्म को जो करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि व क्रियावो [कर्मो ] का त्याग करने वाला योगी-संन्यासी नहीं होता ॥1॥


यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥

अर्थात : हे अर्जुन! जिसको संन्यास -[ सन्यासी ] कहते है , उसी को तू योग [ योगी] जान ! यदि मन में एक भी इक्क्षा-कामना या संकल्प है ,तो न वह योगी है न सन्यासी है ! ॥

श्रीमद्भागवत्गीता एवं श्री गुरूजी वासुदेव रामेश्वर जी तिवारी के प्रवचन पर आधारित !

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