1,अगर वो डर गया।आगे प्रोसेस नहीं होने दिया,तो लौट जाता है, वापस नीचे आ जाता है।
बहुत से साधक,ये मरण के भय से क्या?ये सब लौटे जाते है।क्योंकि ये मरण जो है, ये दो मिनट के लिए हो सकता है,एक सेकंड के लिए हो सकता है,एक वर्ष के लिए भी हो सकता है। सारा जीवन उसी अवस्था में पड़ा रहता है।इसके कोई निमित्त तो है नहीं।
मृत्यु केंद्र है,वो सत्य है।पांचवा केंद्र है,पांचवी जो भूमिका है ये मृत्यु की भूमिका है।योगाभ्यास में,ये बिल्कुल सत्य है कि ये साधक यहां अनुभव करता है,मैं मरा।
मेरा स्वानुभव है।अब मैं मरा ये मैं अंदर से सुना हूँ।लेकिन मरने के लिए हम खड़े हुए थे,तो हुत निकल गया वहां।गिर गये,चार घण्टे गये,पांच घण्टे गये।पानी में ऐसे कपड़े डाल दिया जाय और फिर खड़ा रख दो तो फिर कैसे नीचे गिरता है? उसके काम है गिरना,उसी तरह ये शरीर बिल्कुल ऊर्ध्व से नीचे पड़ गया।ये मैंने खड़े खड़े अपने आप को देखा।हम तो खड़े रहे,हमें कोई भय नहीं।लेकिन ये भय अवश्य होता है।
क्या भय है? ये इस शरीर और आत्मा अनंतकाल से इसका साथ है।इसे,इस शरीर से इतना मोह है,इतना मोह है कि छोड़ना नहीं चाहता।ये अन्नमय शरीर,अन्नमय कोष है।अन्नमय कोष से उससे, उसमें प्राणमय कोष में जब हम जाते है,और प्राणमय कोष से उससे हम मनोमय कोष में जाते है,और मनोमय कोष से विज्ञानमय कोष में जाते है।
यहां मृत्यु की अनुभूति होती है।
2,तो महान भय अगर है तो जन्म- मरण है।यहां जन्म का भय पता तो नहीं,लेकिन मरण का भय का पता होता है।तब वो उसको बुलाओ,उसको बुलाओ,सबको बुलाओ,सबको बुलाओ।क्या लेन देन है? सब साहूकार जो है, बेटी नाती,पोती जितने है,सबको बुला लेते है।और वो देखता है,हमारा शरीर कोई काम नही देगा।शरीर इतना शिथिल हो जाता है,वो हिला ही नहीं सकता।देखता है बोध होता है लेकिन शरीर उसके बस में अब नहीं है।लघु मस्तिष्क के ऊपर चला जाता है।और प्राण कंठ में जाकर अवरोध हो जाता है।तो आसक्ति जो है,ये खत्म हो जाती है,कोई काम नहीं आता।न परिवार काम आते है न पत्नी काम आती है न बेटा काम आता है न कोई काम आता है।डॉक्टर को बुलाते है वो भी काम नहीं आता।वैद्य बुलाते है वो भी काम नहीं आता,हाकिम बुलाते है कोई काम नहीं आता।कोई साधु-वाधु मन्दिर पुजारी माने जिनको संत कहते हैं उनको भी बुलाते है,वो भी कोई काम नहीं आते हैं।
ये सारे वैराग्य जिसको बोलते है उस वख्त उसको वैराग्य हो जाता है।ये कोई काम के नहीं,मैं इनके लिए मरता रहा और सारा जीवन कुछ किया नहीं।अब हम जा रहे है तो लोग कहते है भाई तुम्हारी आखिरी इच्छा है,बोलो हम अन्न दान कर दें,वस्त्र दान कर दें,द्रव्य दान कर दें,या जिसको बोलो इस प्रकार हम वो दें।वो मन में कहता है,सब देने से,इससे क्या होता है?
अब तुम्हारे करने से क्या होता है?जो हम जा रहे है बस तुमको हाथ जोड़ते है।समझ गया मैं,इस बात को।क्योंकि उस वक़्त क्या होता है?
3,कलना एक शब्द है।आदमी वासना जन्म हुआ,से उसकी वासना जाग्रत होती है।बच्चे से देखो कोई चीज पकड़ना चाहता है,कोई चीज वो चाहता है,रोता है चीखता है,वो ये वासना है।फिर इसके बाद क्या होता है?वासना के बाद में,कल्पना।ये भी चाहिए ये भी चाहिए ऐसा करो,ऐसा करो,ये नहीं तो वो नहीं।ये नहीं तो वो देओ,राम नहीं तो श्याम लाओ।माने डायवर्सन ऑफ माइंड करना।चाहे किसी का भी हो,अपना हो,कुछ भी हो।चेंज ऑफ सब्जेक्ट,रिक्रिएशन।तो भाई हमको चाहिए,अच्छा लगता है।ये तमाम बातें सब होती रहती है।
3,लेकिन यहां ये नहीं रहता।यहां तो ये ही है,कि हम अब जा रहे है।तो कल्पना ये सूझ चाहिए मनुष्य को।वासना हो गया,कल्पना हो गया।अब संवेदन,संवेदना ये संवेदना जिसके लिए मरे,जन्म से लेकर आखिरी तक।ये सब खड़े है कोई काम आता नहीं।तब उसको ज्ञान हो जाता है।वेद नाम ज्ञान का है,कौन अपना!कौन पराया!ये सब उस समय बोध हो जाता है।उस समय उसको दिखता है?क्या दिखता है?
कौन साहूकार है,कौन मां है कौन बेटी है,कौन बहिन है।उस समय ये उसको बोध होता है।जो परिवार है, कौन व्यक्ति है,कौन आया,कौन गया, क्या है, दिखता है,उसको।इतना ही तक नहीं दिखता है,आगे कौन से शरीर में जाना है उसको,नरक जाय नर्क जो होता है यमलोक में चन्द्रलोक में,वहां जाता है।निकलने के बाद और वहां से उस शरीर में जाता है,भोगने के लिए।अभी वही विषय बोलता हूँ,उसे स्पष्टीकरण हुआ है यहां पर।तो कुत्ते में, बिल्ली में,तुम्हारे क्या नाम,सांप में बिच्छू में,गाय-बैल -भैस,जिसमें भेजना है, जहां भी,उसे भेज दिया जाता है।इसका नाम शंलिष्ट,श्लेष उसमें जीवित रहकर,ये जीव जाकर रहता है।वो जीव है,जितने जीव है,तुम्हारे क्या नाम यातनाएं होती है।इस तरह से यातनाएं मिलती है।इस तरह से भोग भोगा जाता है।
4,ये शरीर अनादि है।आत्मा अनादि है।ये दोनों एक साथ है।ये जब निकलती है, ट्रांसमिट जब होती है।आखिर ये शरीर है, आकी वाही देह कहा गया है,वो दोनों ये है।वो शरीर वो जो मन है वो जो बुद्धि है,बुद्धि वाली,वो संस्कार वाली उसमें रहते है उसको बोध होता है।इसलिए ये जहां-जहां जाता है,उसको ज्ञान है,वो भोगते जाता है।उस समय वो देखता है कि ये कोई काम के नहीं जिसके लिए मरे!कौन है ये?तब उसको ज्ञान होता है।उसको ज्ञान होता है कि ये मित्र है?,कि शत्रु है?,कि कौन-कौन है,ये।उस जन्म के कौन-कौन है ये तब उसको ज्ञान होता है।और इतना ज्ञान हुआ कि जहां जाना है वो दिखता है-उसका नाम है कलना।किस युक्ति से प्राण निकलता है?कौन निकालता है?कैसे निकलता है?,कैसे।पहले चन्द्रलोक में जाता है,चन्द्रलोक माने वो यमलोक है।पृथ्वी लोक और सूर्यलोक के बीच में चन्द्रलोक है,जहां जाता है और वहां से-जहां जहां भेजना है।वहां से यमराज उसको यमदूत के द्वारा भिजवा देता है,सब जगह, जहां- जहां पहुंचना है,उन जीवों में पहुंचा देता है।यही भोग है माने उसको ज्ञान रहता है।है,इसलिए पुर्नजन्म माना गया।हमारी संस्कृति में पुर्नजन्म मानते है।खाली मुसलमान और क्रिश्चन में,काली उसमें भेद है,वो पुनर्जन्म नहीं मानते है।बाकी सारी दुनिया मानती है।और,जितने सम्प्रदाय हैं,सब मानते है,क्योंकि है,पुर्नजन्म है।तब उसको दिखता है,कि कौन सी शरीर में जाना है।वो छटपटाता है और घबराता है।और एक दिन दृश्य आता है,वो करके,चला जाता है।
5,असंसक्ति ये पंचम केंद्र जो है ये मृत्यु केंद्र है,माना गया।साधक भी साधना करके जाता है,सेंट्रल केनाल में,जब ये सुषुम्ना में,जब ये पंचम केंद्र में आता है तो यहां मरणप्राय,मरणा अनुभति उसको अनुभव होता है।इसमें जाना पड़ता है,मरता है।बिना मरे स्वर्ग नहीं दिखता बिल्कुल सही बात है।मरना ही चाहिए, मरता है।लेकिन ये मरता नहीं है।अगर अच्छा अभ्यास किया धीरे- धीरे शनैः-शनैः किया तो निकल जायेगा ऊपर।
और एकदम से वो करता है तो नुकसान हो सकता है।पैरालिसिस हो सकता है,रोग हो सकता है,व्याधि हो सकती है और पिसाच भी बन सकता है।उसकी सारी वॄत्ति पिसाच की हो जायेगी।गाली देना,मारकाट करना,हगना मूतना करना होगा।वो पिसाच के जैसे होगा,तो ऐसा भी हो सकता है।इसलिए योग के मार्ग में धीरे- धीरे,जन्म भर तो करना है।जन्म माने इसी में निकालना है।एक दफे रास्ता मिल गया,ये रास्ता कभी बन्द होती नहीं,ये जीरो रास्ता है।ये किसी प्रकार से कोई बन्द नहीं कर सकता इसे।ऐसे वो चलते रहता है और उसको आनन्द भी इसमें मिलता चला जाता है।कुछ काल के बाद उसको आनन्द मिलता है।सब समझ में आता है,मेरा काम बराबर हो रहा है।कैसे हो रहा है! मालूम नहीं,पहले तो नहीं होता था।अब तो होने लग गया है।ऐसा बोलने लग जाता है,तो आनन्द होता है।पंचम केंद्र जहां क्रॉस किया,इस पंचम केंद्र को हम लोगों ने इसको जो क्रॉस किया।इसको माने जो भेदन करके और आगे चला,तब उसको सन्त कहा।
6,चतुर्थ केंद्र में वो साधु है, जिसको वली कहा।इसलिए मरण अपने देखना।आपुले मरण पाहिले म्या डोला।तुकाराम महाराज कहते है मैंने अपने मरण को अपनी इसी आंखों से देखा है,माने इसी जन्म में।गीत गाते है, पढ़ते है,लेकिन अवस्था है,ये।
हमारे साधक लोग है,अगर नहीं मानेगें,कितने दिन बन्द नहीं करेंगे।क्रोध नहीं करेंगे,तो ये हालत होती है फिर,जो आपकी हो जायेगी।उसको कोई फेर नहीं सकता।कोई नहीं कह सकता,कौन क्या स्थिति क्या होगी।क्योंकि आपके अभ्यास ये है, पद्धति पर है, कि शनैः शनैः होना।धीरे-धीरे होना जो मैं आपको कहता हूँ।धीरे धीरे पचाते जाओ,इसलिए मैं बोलता हूं।पचने में आ जायेगा तो बराबर आप निकल जाएंगे।ऐसी इजी गोइंग है,बराबर निकल जाएंगे आप।लेकिन जो बैठ के जबरदस्ती करते है, इधर- उधर,वो तो बहुत मार खायेगा।और दुनिया में भी हंसी होती है।दुनिया को मालूम तो है,नहीं,वो नाम रखते है।पगला हो गया,पगला हो गया,मारो इसको।फिर पूछता नहीं कोई,सेवा कोई नहीं करता।ये दुनिया की तुम सेवा करते हो, उस हिसाब से दुनिया तुम्हारी सेवा करती है,अन्यथा नहीं।…पहले,कोई नहीं पूछता।
तो तात्पर्य ये है तब जा के षष्टम भूमिका में पहुंचता है।पंचम भूमिका क्रॉस करके वो उधर जाते है,ऐसे अनेक साधक थे हिंदुस्तान में,भारत में,सब जगह।सब लौट जाते है।इसलिए जो बाहर के सम्बन्ध का मोह है छोड़ना उसको, सब छूट गया लेकिन देह छोड़ने को तैयार नहीं।क्योंकि ये ही देह है,जो दूसरे देह में भेजा जाता है,न।तो ये देह भी गये।मरते समय में ये आनन्द जो इस देह में रह करके,है स्ववश लेकिन परवश रहा,इंद्रियों के वश रहा करके सारा,कुत्ते जैसा जीवन व्यतीत किये इस शरीर में आ करके।इसलिए कुत्ते के जन्म में पहले,माने जीवन मिलता है। पहले मिलता है कि नहीं, मिलता है, लेकिन पहले भेजा जाता है।कहते है न कुत्ता बड़ा स्वामिभक्त है,वो क्यों स्वामिभक्त है?सभी कुत्ते स्वामिभक्त नहीं है,जी हां।तात्पर्य ये है कहने का संचार होता है जिसमें संचार कर दिया गया,वो बिल्कुल मनुष्य का एक आत्मा है उसमें।इसलिए मनुष्य आत्मा जो है कुत्ते में रह करके बिल्कुल मनुष्य जैसे,उस कुत्ते का काम हो जाता है सब,ऐसा है।समझता है, बोली समझता है,कुछ भी बोलो वो सब समझता है।तो तात्पर्य ये कहने का,असंसक्ति के बाद में,ये कोई काम देता नहीं है।ये,सब- सब- सब,सारे।तब वो सन्त हुआ।मरण जब जीत लेता है,मरण जो केंद्र है इस केंद्र से ऊपर जब चला जाता है,तो मरण भय से दूर हो कर,वो अभय हो जाता है।षष्टम भूमिका में अभय हो जाता है।और फिर सतोगुण सम्यक शुद्ध हो जाता है।पूर्ण शुद्ध हो जाता है।माने ये सारे जो भय है,अभय में परिवर्तन हो जाता है।और ये इन्द्रियाँ जो,ये तुम्हारी,अंतःकरण ये तुम्हारे जो संसार में फंसाता था दुःख देता था वो बदलकर अब शुद्ध होने लगता है।वही एक समय जो दुःख दे रहे थे वही अब आनन्द देते है।अपना जीवन आनन्दमय अब व्यतीत होगा।सदा मनुष्य आनन्द में है और उनको भी आनन्द देने में वो समर्थ होता है।तो ये सन्त पद है,ये।और जब ये ऊपर आता है,तो मुस्लिम धर्म में,सूफी धर्म में उसको पीर कहा गया।षष्टम भूमिका में तब वो पीर होता है।पीर तो ढूंढने से नहीं मिलते।लेकिन मुसलमानों में मजे की चीज है जो कि लेने लायक है। दरिद्दर हो गये फकीर है,पैसा हो गया उनके पास में तो अमीर है,और मर गया तो पीर है।मने कहीं भी हार मानने के लिए तैयार नहीं है,कितना बढ़िया चीज है ये।तात्पर्य ये है,तब वो हंस होता है।उनका पीर माने अपना हंसावस्था है।सोहंsस्मि, वो मैं हूँ।अहँसा,वो मैं हूँ।तब अपने आपको देखता है,अपने आपको समझता है।और कहां-कहां उसको,अनेक जन्मों का भी बोध होता है,उसको।और जो जितने लोग है उनके,सब वो समझता है।कौन क्या था?कौन क्या था?कौन क्या था?सब-सब -सब।तब वो उदासी हो जाता है, तब वो साक्षी हो जाता है।खाली देखता है,समझता है।ये रहस्य है,ये मौन है रहस्य है।यहां कोई बोलता नहीं।मौन हो के देखता जाता है,अंदर।अब वो सब भोगता चला जाता है।तो षष्टम केंद्र में रह करके बहुत भोगना पड़ता है।ये सिद्धावस्था है।ये शांत्यावस्था है।याने बाहर का सारा कारोबार शांत हो जाता है।अब भीतर का बाकी है अनेक जन्मों के जो अपने को(जमा है) भोगना है वो अपने को दिखता है।कहाँ? कौन? किधर? क्या- क्या?ये सब दिखता है।इसलिए,अनेक हजारों साल बीतते है,हजारों जन्म बीतते है।मुक्त होने के लिए,जिसको कहते है।निर्वाण और सार जिसको कहते है।हजारों साल नहीं हजारों जन्म बीतते है।साधारण बात नहीं है,ये।ये मोक्ष है,ये मुक्ति है।कहा करो,समझा करो।अभी आप तो यही है,कीर्तन बोलते हो और कीर्तन गाते हो।मैं जानता हूँ, कीर्तनकार है भई ये।तुम अपने आप को विषय/ निषेध कर रहे हो,और समाज को विषय / निषेध कर रहे हो।षष्टम केंद्र पर आये तो बाहर बधिर, हाथ उठा दिये,उसे पीर कहते हैं।यहां तक हम बोल सकते है,षष्टम भूमिका तक।
प्रत्येक व्यक्ति गुरु के आदेशानुसार बन्द न करे।करो अभ्यास,लेकिन दस मिनट,दो मिनट,पागल नहीं बनना चाहिए। सिक्के के दोनों बाजू रखिये।ताकि हम बोलते भी जाय आनन्द भी रहे।
7,ज्ञानेश्वर ने लिखा है कि हेय शब्द मिय संवादिते,इन्द्रियाँ देहला भोगले।इसी शरीर में रह करके इंद्रियों को मालूम न पड़े और ये आनन्द को भोगो।माने ये देह को छोड़ना नहीं,देह को फंसाना नहीं,सुखाना नहीं।और पलायन तो करना ही नहीं,जहां हो वही।माने सतत अभ्यास थोड़ा- थोड़ा- थोड़ा।शनैः-शनैः उपरमेत,ये गीता है।धीरे-धीरे-धीरे चींटी की चाल से चलना है।मैं बन्द नहीं करने,बन्द भी करेंगे तो भी अभ्यास तो होगा।बन्द नहीं होता,क्योंकि ये जीरो रोड है न, बन्द होता ही नहीं।तो चींटी की चाल चलने से, कछुआ के चाल चलने से बड़ा आनन्द लेंगे।ये तो आपका जन्म- जन्म बन गया।जन्म-जन्मांतरों के लिए आपका जीवन बन गया।सम्यक जीवन यहां से हो गया,ये है सम्यक जीवन।ये जीवन जीवन है।सेंट्रल केनाल में घुसे बिना,बाहर जितने है,वो जीवन नहीं।वो जीवन तो कष्टमय है।इसलिए इन्द्रियाँ,देहला भोगले।यानी इंद्रियों को पता भी न चले कि,और आनन्द हो गया। माने संसार में रह करके आप जितेंद्रिय हो जायेंगे।और सब कुछ जो सुख है,आपको मालूम होगा ये दुख क्या है आपको मालूम होगा।और ये दोनों को भोगते हुए आप आनन्द मिलता रहेगा।मौला आदि अनेक सन्तो ने अनेक मार्ग जो है,माने परंपरा है और बता रहे है।गोल तो एक है।
मार्ग अनेक है।लेकिन एक ही बात है।ये छोड़ दीजिए ये जो आपमें है।माने जो आत्मा है ऐसा पकडो, ऐसा चिपक जाओ उसमें,जैसे मकोड़ा गुड़ को पकड़ता है।मकोड़ा इधर पकड़ ले,उसे खींचे तो मुंडी टूट जायेगी लेकिन वो छोड़ेगा नहीं।
इसे छोड़ने के लिए नहीं कह रहा हूँ।दो मिनट,दस मिनट,एक मिनट,कुछ नहीं तो चलते-फिरते याद कर लेना बस हो गया।बस अपने काम में हो लेना।एक दफे ये जीरो मार्ग मिल गया आपको। वो नहीं बन्द होता है।अनेक जन्मों के लिए होता है।इसलिए वे छः भूमिका तक ला दिए आप को।
और लास्ट भूमिका जो है, वो तो जब छः में आयेंगे,तो सातवा से उसका सम्पर्क बन जाता है।वो साधक जो है,वो समझता है। हमको बोलने की कोई आवश्यकता नहीं है।
क्योंकि वो एबव टाइम एंड स्पेस है,देश और काल से परे।
8,ये श्रृंखला गीता में दिया है।इन्द्रिय से परे है।इन्द्रियाणि परण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परः मनः।मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः।
सत्त्वानुरूपा सर्वस्व श्रद्धा भवति भारत।श्रद्धामयोsयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव सः। ये,वो तुम्हीं जानो,तुम्हीं समझो।वो हमारे बोलने का काम नहीं।षष्टम भूमिका तक कोई भी बोलता है। उसके आगे कोई बोलता नहीं।स्वानुभूत्या विराजते।देहो देवालयं प्रोक़्तो,देहो देहि निरंजनः,अर्चितसर्वभावेन,
स्वानुभूत्या विराजते।तन,मन,धन इन तीनों से उसकी अर्चना करना चाहिए।माने साधना करना चाहिए, उसको प्राप्त करना चाहिए, उसी में मिल जाना चाहिए।मिल क्या जाना वो तुम्हीं हो।स्वानुभूत्या विराजते,उसके पास स्व के अनुभव है,ये सब बातें वहां है।वो हमारा बोलने का काम नहीं है।इस तरह से,उपमा नहीं है वहां।बाकी में आदान प्रदान होता है।वहां तो सेल्फ ही सेल्फ है,बस।सेल्फ इस विदिन।अखंड ज्योति रूप है वो,आपके सामने आ जायेगा वो।
सारा संसार में अखण्ड ज्योति,सारा ब्रम्हांड,कुछ भी नहीं रह जायेगा उसके सिवाय।
मेरा अनुभव है किताब में दिया हूँ।
9,अब उसके परे और जायेगा,तो वो है एब्सलूट,वो निर्गुण निराकार है।इससे ऊपर आज तक कोई गया ही नहीं।इसी को परमोत्कर्ष कहते हैं।परमोत्कर्ष जो है उसे पाने के लिए ,समझने के लिए जानने के लिए,बारबार इस पृथ्वी पर आपका,जन्म होता रहता है।अपना जन्म होता रहता है।जन्म से क्या लाभ है?अब हम क्या बताये आपको।अगर लाभ न होता तो ये शब्द ही नहीं रहता,इस शरीर में,हां।और ये मूल संस्कृति भारत के है।हरेक व्यक्ति कहता है,इससे क्या होता है, कैसे होता है और कौन मार्ग है।मरने के बाद मौत तो हो ही जाता है।
10,चार्वाक ने भी लिखा है।दर्शन लिखा है-यावत जीवेत,तावत पीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।कर्जा करके घी पियो।अरे,कर्जा करो खूब खाओ।मेहनत करने की क्या जरूरत है?
तो तात्पर्य ये है,ये छः भूमिका बताये है,वो है- पदार्थाभाविनि।माने उसका कोई भी अट्रैक्शन शरीर,संसार में नहीं रहता।सारे पदार्थ का अभाव हो जाता है।माने पदार्थों में उसमें जो मोह,दोष आदि जो होते है,वो सब दूर हो जाते है।और वो भाव में रहने वाला है।भावे हि विद्यते देवः तस्माद भावो हि कारणम।तब वो स्थायी होता है।ये स्थायी भाव तब होता है।तो फिर वो मनुष्य नहीं वो देव हो गया।
तो देव तेचिया जेका अंज रेका, त्याच म्हणे आपुले।क्योंकि पहले साधु वो था,पहले साधु होता है।चतुर्थ में आ के वो साधु होता है। उसको बल मिलता है,उसको आशीष मिलता है, निश्चिन्त हो जाता है,फिर चलता है।
11,तब यहां छः के बाद में,ऐसा जो रेयर,ब्रम्हांड में,दुनिया में कम लोग है ऐसे ।और बहुत काल के बाद में एकाध ऐसे हो जाते हैं।तब उसको देव शक्ति माना जाता है।देव तेथे जाना।माने ऐसा कुछ कहा,तुम जानो की, देव वहां है।कहाँ है?
जब एबव टाइम एंड स्पेस।देशकाल से परे जब तुम चले जाओगे।बुद्धि से भी परे चले जाओगे।हेतु और परिणाम और देश और काल से भी परे जब निकल जाओगे।वहां कुछ भी नहीं रह जाता है।यही पूर्णत्व है।
यही-पूर्णमिदः पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्ण मुदच्यते,पूर्णस्य पूर्णमादाया पुर्नमेवा वा शिष्यते।
तो ये जो पूर्ण है।ये जो जीरो रोड जो बताया आपको।वही पूर्ण है,वही पूरक।जैसा कहा गया न
,एवरी रोड ‘क्या है’ रिच टू रोम।ऐसा कहीं भी तो कहा गया है न।हर मार्ग गोल को पहुंचा देती है।रोड माने आपके रोम,रोम में एक रोड है मार्ग है।हर मार्ग जो है,इस सेंटर में,ब्रम्हरंध्र सेंटर जो है,वहां पहुंचा देती है।और उसी केंद्र में इस देव का दर्शन होता है।और वो सेंटर केनाल में केंद्र का नाम है,इंग्लिश में इंट्रा वेंट्रिकुलर फोरामोना ऑफ मोनरो।उसी को ब्रम्ह रंध्र कहा गया।और उसी को दसवीं खिड़की,कबीरदास के की कही गई है।और उसी को गोलोक कहा है।उसी को सत्यलोक कहा है।उसी को साकेत कहा है।उसी को शिवलोक कहा है।उसी को वैष्णव लोक कहा है।उसी को शाक्त लोक कहा है।और उसी को निरालम्बपुरी कहा है।आलम्ब रहित हो जाते है।नाम भेद है,सब बातें है।लेकिन बोलने के लिए तो हम भी बोल दिये, सुना दिये आपको।उसी को नाम है वैदिक धर्म में,वेदों के आधार पे, सत्यलोक।लोक माने लोक या है।तब जा करके-निर्वाण हो जाता है।
12,तो तात्पर्य ये है ,ये सप्तभूमिका है।ये सात भूमिका के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को अभ्यास करते हुए,ये सब,अनुभव होते चला जाता है।
और अनुभव होने के बाद,उसका सब कुछ बदल जाता है।चरित्र बदल जाता है,भाषा बदल जाती है।उसके जीवन में जो जीवन है, जीवन बदल जाता है।भय वाला जीवन समाप्त हो जाता है,अभय हो जाता है।और सम्यक शुद्धि,उसके निकट आने वाले भी, कुछ न कुछ उसके पास से मिल जाता है।और लोगों का कल्याण होता है।
इस प्रकार से समाज में आप उऋण हो सकते है।सामाजिक ऋण इस तरह से जा सकती है।यहां पहले उऋण हो,फिर समाज से उऋण हो।
13,माने,आपसे समाज का कल्याण होते जाता है।तो ये है कल्याणमयमार्ग।यही कल्याणमय स्थिति है।और यही कल्याण है।तब वह,कल्याण माने निर्मल होना।तब वो मलरहित होता है।तब अपने आपमें आता है तब अपने आप में जो शक्तियां निहित है। जो सोई हुई है तब उसकी युक्ति मिलती है,कैसे प्रचार करना,कैसा प्रसार करना,कैसे करना कैसे नहीं करना।सब अपने में वो मिलता है।
14,एक त्रिकोण ऊपर भी है, जैसे नीचे है।जैसे नीचे जो जगत में इच्छा, क्रिया और ज्ञान जिसे कहते है।संसार में इच्छा करते है आप,सक्रिय हो जाते है।सुख दुःख फल मिलता है।तो ऐसे ये स्थिति होते जाने के बाद में,जब सप्तम में आप,सप्तम आता है तो वहां भी एक त्रिकोण है।
उसका नाम है- ब्राम्ही विचार,ब्राम्ही शक्ति और ब्राम्ही कला।आपमें विचार आये नही कि हो गये।कैसा करना?ऐसा तुम कर लो,और हो गया।और ऐसी कोई चीज नहीं कि तुम कर न सको।
14,तो तात्पर्य ये है हमारे कहने का, ये है-जय जय रघुवीर समर्थ।स्वामी रामदास जी बोलते थे।क्या हेतु हमको नहीं मालूम।मैं जानता हूँ,इतना जय माने चरित्र।जय का अर्थ होता है-जयं चरितं।,इतिहास में क्या है सब चरित्र है।उसी को क्या कहते है,जय कहते है।मैं बोलता हूँ,चरित्र को हम पढ़ते है।री नाम बोलने के है माने ब्रह्म में जो रचना है वो हम बोलते है।माने सत्य में है,वो।
यहां से सम्यक जीवन,चरित्र यहां होता है।रघु ये पद है-ये लंघ धातु से बना है।लंघ- ल के ऊपर अनुस्वार है,उसमें स्वर नहीं है। इसलिए उसको लोप कर दिया गया है।तस्यतः लोपास्यात,हटा दिया है।ल और घ रह गया और घ जो है,धन कु ये प्रत्यय लगाया।तो ककार के अंदर स्वर नहीं उसको लोप कर दिया।माने उकार रह गया,अब ल घ संयोग कर दिया तो लघु बन गया।और लकार को लस्य लस्यात एक रेफ बन गया।व्याकरण में कहा गया।रे फो र मा सम्या,सम्य लकार का लकार होता है,जकार का जकार होता है।तो यहां लकार का लकार हुआ।ल तस्यात लकार का लकार बन गया।र घ वु हलोलंतः संयोगः।तो क्या बन गया,जोड़ दिया,रघु बन गया।तो रघु माने क्या?
लंघ माने क्या?
जितेंद्रिय जिन्होंने संसार के इस पर्दा को फाड़कर के और जीरो रोड में पहुंच गया।वो जीरो रोड में जा करके,अपने आप में शक्ति को जिसने प्राप्त कर लिया।उसकी जो वीर,माने प्रेरणा।वीर क्या है? प्रेरणा है।व माने और, ई बन जाता है,ई माने शक्ति। उसकी आत्मशक्ति जो है,उसकी प्रेरणा कभी विफल नहीं होती है।सदा सफल।
वो जैसा सोचता है,जैसा विचार करता है, हो जाता है।जैसा वो सोचता है उपाय वैसा हो जाता है।जाये ऐसा कर दो,वैसा कर दो,वो हो जाता है।और ऐसा कोई कार्य नहीं,जो बदल न सके।ये है,ऐसा निर्माण शक्ति उसको प्राप्त हो जाती है।वायवीय शक्तियां मिल जाती है,षष्टम भूमिका में रहकर के।शक्ति से सम्पन्न हो जाता है,जब पूरा मर जाता है तब।अष्टसिद्धि मिल जाती है और नवतुष्टियाँ नवनिधियां मिल जाती है।कई बार बोल चुका है तब ये प्राप्त होता है।ये सहज नहीं है।हमको चाह,शक्ति मिल जाय,ये बोला करो भैया।पहले मरो,मरणा तो सीखो।पागल तो होना सीखो।
15,तो तात्पर्य ये है बिना मरे स्वर्ग दिखता नहीं।स्वयं के मरे बिना स्वर्ग मिलता नहीं।इसलिए शरीर से बहुत बड़ा मोह है।ये मोह छूटता नहीं है।इसलिए साधक साधना करता है और ये डरता है।राधास्वामी शिष्य जो है,मरण के अनुभव आये तो,वो दौड़ के भाग के यहां आये।लोगों ने बता दिया किया कि एक आदमी है यहां है। मैं बोला बाबा जिससे तुमने दीक्षा लिया वहां आप जाओ।तुमको कुछ बताया नहीं बता दिए ऐसा ऐसा है तो स्थिति नहीं।तो ऐसा है धीरे धीरे चलना है,कब करना है,क्या करना है।क्या होता है। क्या नहीं होता है।कैसे कैसे करना है उनके पास जाओ तुम।वो बोलता है,बोलने वाला नहीं है कोई। तो ये बाते है,मृत्यु को,भय को पाते है।ये स्पष्ट कर रहा हूँ।आप शक्ति की विचार करें।एक सेकंड भी बैठे तो बहुत है।खाली,खड़े रहके भी याद कर लिया,तो बहुत है।ऐसा है।जिसको चाह है,पूरा होना है तो चलना है।मोह में पड़ना ही नही।
16,तो तात्पर्य ये है हमारे कहने का ये सप्त भूमिका है।ये सप्त भूमिका में हमारे जो मति है।एक सिक्के के दो बाजू है,दोनों बाजू सम्हालते हुए चलो,तब आप समाज में आदर्श होते है।
आप देखिए लंगोटी वाले जितने हैं,ये सब फैलयर हो गए,समाज में।
उनके पास सम्पत्ति है खूब सम्पत्ति है।उनके बाल बच्चे भी है फिर भी समाज,जाती है वहां,मन्दिर में जाते हैं।मस्जिद में जाते हैं,दरगाह में जाते हैं।वो मजार है वहां जाते हैं और वहां देकर आते हैं।कुछ नहीं मिलता फिर भी वहां जाते है।तो महात्मा के पास में,महन्त है उनके पास नहीं जाते।वो स्टेच्यू खड़ा है उनके पास जाते है।लेकिन वो स्टेच्यू है
वो स्मारक है वो कारक नहीं।वहां कितना भी गिड़गिड़ाओ राम के मूर्ति के सामने,कुछ नहीं होता।य तु स्मारका, न तु कारका:,वो कारक नहीं है।
कारक सतगुरु ही होते हैं।मानव सरीखे मानव,इस सत्ता को प्राप्त कर लेने के बाद,इस विद्या को प्राप्त कर लेने के बाद, उसमें हैं।तो तुम्हारा कल्याण हो सकता है,उससे।अन्यत्र नहीं है वो।इसलिए उपनिषद में लिखा है-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्नि बोधत।नहीं तो।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।
ये संसार बिल्कुल दुधारी है, तलवार दुधारा, दुधारी है,हिले की कटे,हिले की कटे।
जब तक कोई महापुरुष न मिल जाय कोई महापुरुष न मिल जाय।सत्पुरुष न मिल जाय, सतगुरु न मिल जाय, तब तक नहीं।
पहले इच्छा,शुभेच्छा।सतगुरु मिल जाने पर आदेशानुसार आप अभ्यास करें।तब फिर आप की इच्छा शुभ होती है।कि भई सबको,अगर ये मार्ग सबको मिल जाय तो सब सुखी हो जाएंगे।हमारा पास पैसे जैसे जमा हो गया है,वो वैसे लोगों के पास जमा हो जाय तो सब को सुख मिल जाएंगे।यही प्रथम भूमिका है।
ये सप्त भूमिका आपके सामने रखा।ये जीवन हमारा जब है,तब सम्यक जीवन होता है।इसको हम समाधी कहते है।ये जो बुद्धि आपकी है,ये ब्रह्मास्त हो जाती है, जैसे विचार किये नहीं कि हुआ।ऐसे करो, हो जाय,तो हो जाता है।और ये बदल दिया,माने बदल गया।
ये ब्राह्मी विचार,ब्राह्मी शक्ति और ब्राह्मी कला,ये तीनों ऐसे साधक को ऐसे प्राप्त हो जाते है।यही योगमार्ग(का सार) है।आपके सामने रखा।
और भी योगी लोग हैं, प्रकार भिन्न भिन्न है।लेकिन मैंने जो समझा और मिला आपके सामने रख दिया।
मेरी आशीष है कि आपका जीवन सफल हो।और इतना मुझे भरोसा है कि पहले से आप लोगों के जीवन में,चरित्र में,कुछ अंतर तो आया है।पहले जैसे तो नहीं रहे हैं, आप,ये लोग।इतना ये मुझे विश्वास है।
अगर ऐसा न होता तो,मैंने कितना खिंचाव किया हूँ आप लोगों को। लेकिन फिर भी आप लोग माने यहां आते ही हैं,योगाभ्यास करते है।इसलिए मैं,ये अनुमान नहीं,मैं विश्वास करता हूँ कि आपके जीवन में भी परिवर्तन आ गया है।और परिवर्तन होता चला जाता है।प्रपंच में भी बलपूर्वक भोगते हुए ,अपने आत्मानुसंधान में अग्रसर होते हुए जाएंगे।और वो समय से परे,देश काल से परे।अगर आप बने रहेंगे। तो ये जो रास्ता है,ये अपने आप उस गोल में ले जाकर पहुंचा देगा।
तो ये मार्ग है,ये प्रकाशमय मार्ग है।ये जीरो रोड है,ये प्रकाशमय मार्ग है।ये जीरो रोड जो है,ये ज्ञानमय मार्ग है।ये ज्ञान है।ये ज्ञान रूपी प्रकाश,जो मार्ग रूपी है तुम्हारे सामने,चलते रहोगे तो,पहुंच तो जाएंगे ही।धीरे-धीरे चलते रहो।
अगर वो कसा और कासव तो मालूम है आप लोगों को।ऐसे स्मारक पूजा,स्मारक पूजा,स्मारक में ही है,अभी।गए तो गए,बहुत दूर वो फंसा।
इसी में है अगर दिखता ही नहीं कहाँ से चले थे।
ये सोल में है।समाप्त हो गया,वो कासो से,वो,धीरे धीरे चलता है,आवाज तक नहीं है,प्रकाश में,
वो गोल के पास पहुंच गया।इसमें आंख खुलती है।
देखता है कि नहीं दिखता है।वहां वो गिर गया।तो मारा,कूटा,तो पहले से था वही पहुंच जाता है।
अहंकार आने से उसमें निद्रा आ गई,तमोगुण आ गया।तमोगुण माने,अज्ञान,अज्ञान माने,और क्रोध तो उसके हाथ से निकल गया।
तो अपने को ऐसा नहीं होना चाहिए।
अपने को तो चींटी की चाल चलना है।डाइजेस्ट होते चले जाना है।
ये हमारा शुभकामना आपके साथ में है।शुभाशीष है और बाई फर्म,आपकी कामना शुभ हो।इत्यलम।ॐ शान्तिः,शान्तिः,शान्तिः।
16,वो स्वयं के यहां है,स्वयं छूटता चले जाते है।जय माने चरित्र,तब ये सम्यक जीवन हो गया।
सम्यक चरित्र ये है।
सब दूर हो गया है।
लंघ धातु से रघु बना है और वीर माने प्रेरक।तब वो प्रेरक जो प्रेरणा आपके अंदर से आते है।वो सब सत्य होते चले जाते है।इसलिए इस वाक्य को,रामदास स्वामी ने जो कहा है, कि जय जय रघुवीर समर्थ।
या समर्था,या सेवका,या कृपा हे।असा सर्व भू मंडली कोण आहे।
कितना जबर्दस्त अनुभव है,कितना जबर्दस्त वाक्य है।ये ब्रह्म वाक्य है।
17,जब तक हम आज,अभी जो चल रहे हैं इस तरह से योगविद्या जो है।ये अनुभव में आने चाहिए।ये आचरण में आना चाहिए।मरो पागल बनो।दस आदमी पागल बनेगा तो एक उसमें से ज्ञानेश्वर जैसे निकलेगा।रामदास जैसे निकलेगा।तुकाराम जैसे निकलेगा।
सब समान नहीं हैं।सभी ज्ञानेश्वर नहीं है,सभी रामदास नहीं है,सभी तुकाराम नहीं है।
उदाहरण है सब,ये उदाहरण सामने रखता हूँ ना।
18,महाराष्ट्र जो प्रदेश है,ये दक्षिण उत्तर को जोड़ने वाली देश है ये।उत्तर की संस्कृति और दक्षिण की संस्कृति इन दोनों को जोड़ने वाली ये देश है ये माध्यम है।दक्षिण उत्तर संस्कृति को जोड़ने वाली माध्यम है।इसलिए महाराष्ट्र में,दक्षिण की सारी संस्कृति है,उत्तर की सारी संस्कृति है।और जो माध्यम होता है वो बहुल होता है।जो बहुत बलवान होता है।वही माध्यम हो सकता है।ये सोचने की बात है।हम कहाँ सोचते है?पानी ही नहीं रह गया हमारे में!सोचने के।ये फैलना चाहिए पागल होना चाहिए।
आप जानते है,देश स्वतंत्र हुआ।कितने लोग मारे गए?कितने लोग मारे गए?कुछ याद है आपको?खाली उतना ही याद है आपको।अधूरा है।
जब तक आध्यात्मिक उन्नति नहीं होता।जब तक आत्मबल नहीं मिलता,शापादपि शरादपि ये शक्ति तब तक प्राप्त नहीं होती है।तब तक आपकी दुर्गति,देश की दुर्गति दूर नहीं हो सकती है।
अधिकारी वो नहीं है।
इसके बाद में है जो कि ला।लाला लोगों ने सबको सीखा दिया।ला,ला।ये लाला लोगों ने सीखा दिया।
पहले महाराज थे।योगिराज थे, योगी लोग थे,योगी लोग महाराज थे।ब्राह्मण समाज नहीं,ये बेकार बातें हैं।योगिराज थे,उनने राज किया।राज करते हुए बाद में वो विलासिता में आ गए।
जिसको
रक्षा करने वाले सिपाही लोग,सैनिक,वो सेनापति वो राजा बने।बहुत दिनों बाद वो भी विलासिता में आये, वो भी गिर गए।तब जो वणिक,वो जो कोषाध्यक्ष थे,वो राजा हुए और ला,ला शुरू वहां से हुआ।
ला,ला,ला तो आज यही वृत्ति अभी तक है।प्रत्येक व्यक्ति ला कहता है।
सिपाही जो रहता है गेट पर खड़ा रहता है उसके पास में।है, साहब हैं?उसको,अगर कुछ नहीं दिए उसको,तो कहता है,साहब नहीं है।है अंदर पे है।किस पर भरोसा करेंगे?आज ये सारा कारोबार है व्यक्तिगत।और क्या कहते है,समाज में,व्यक्ति क्या है,व्यक्तिगत हमको नहीं,
आप सामाजिक आप रहे।
लेकिन मैं जो कहता हूं केवल प्रत्येक व्यक्ति,आज व्यक्तिगत तो है। इंडिविजुअल है आज।आप देखे नहीं,प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में मस्त रहता है।अपने आप में है कोई भी किसी की भी परवाह नहीं करता।इसलिए जब तक ये व्याकरण,सिद्धान्त कौमुदि जब तक ये व्याकरण और आचार्य।आचार्य गण जो है,सत्पुरुष,सतगुरु, इनके सामने रहकर जब तक तुम पागल नहीं बनते।मरते नहीं पिसाच नहीं होते इसमें। दस में तो एक अच्छा होगा।दस में एक तो ज्ञानेश्वर जैसे होगा,दस में एक विवेकानंद जैसे होगा,दस में से कोई एक रामतीर्थ होगा। कितने महान लोग हो गए हैं।
नाम नहीं लूंगा,बहुत बड़ा आदमी है,मर गया कैंसर से।अकोला में आये थे,हमको कहे शामिल हो जाओ।ठीक है मैं शामिल होता हूँ,लेकिन मेरा विषय ये है,रहेगा।तेल्हारा की बात है ये जो मैंने सन्देशा पहुंचवाया।तो हमको शीर्ष लोग नहीं, हमको सिपाही चाहिए।ये खतरनाक लोग है,जो संसार है।इसलिए तो छोड़ दिया।माने ये जो फाइन है सब काम करेंगे,अच्छा काम करेंगे।ये सत्य कथा है।मिशन में गये,रामकृष्ण मिशन,बिलासपुर में।रामकृष्ण मिशन में आत्मानंन्द के पास गए।वो तो कहते थे भई आप तिवारीजी को आप,उनके सरीखे है कोई क्या आज।अनुभव हो जाय।ये नहीं हो,होने के लिए,मिशन में रहे।उन्होंने कहा अगर तिवारी जी आश्रम में अगर रह जाते तो लोग पंचवटी जाना भूल जाते।जहां रामकृष्ण परमहंस थे, कुछ दिन वहां जाया जाता है।लोग वहां जाना भूल जाते,अभी की बात है।आत्मानंन्द स्वामी जो है।ये कहकर इन लोगों ने कि तिवारीजी दीक्षा देते है,वे लोग मना कर देते है।तात्पर्य ये है कहने का है,क्या कहते है दीक्षा देते है।मैं दीक्षा देता हूँ इसलिए मुझे रामकृष्ण मिशन में,सम्मलित न होने उसमें,ऐसे उन्होंने ऐसे बोला गया।
ये है,ये संस्कृति के रक्षक है।आत्मानंन्द स्वामी जो है वो दूर से हमको नमस्कार करता है,तिवारी जी नमस्कार।मैं जब जाता हूँ सब लोग उठके खड़े हो जाते है।मैं उठ के खड़े होता हूँ।ये जब बैठते है सारी दुनिया खड़ी होती है।एक दिन ऐसा मौका आया कि वो अंदर घुसे,मैं भी वही था मैं।वो कहते है आप बैठ जाइये।आप नहीं बैठते तो मैं भी खड़ा रहूंगा।आप हमारे लिए नहीं उठेंगे हम आपके लिए उठेंगे।और ये जितने है ये सब खड़े रहे,अधिकारी लोग थे।
जब तक आपके व्याकरण और ये साधना नहीं करोगे जब तक ये दरिद्री कभी दूर नहीं होती है।समझे।कि मैं अपना मत आपके सामने रख रहा हूँ।क्योंकि मैंने जो है अपने जीवन को आहुति दे दिया है।मैं, ये घर बार, पैसा कौड़ी,घोड़ा गाड़ी बग्घी सब कुछ जो है,मकान,दुकान,जमीन।जमीन जायजाद सब कुछ था,मैंने सबको पानी फेरा।और चला अपने आपको समझने के लिए।