निर्लिप्तता

[श्रीकृष्ण[गीता ] व श्री सद्गुरुजी के प्रवचन पर आधारित ]-

1.मन का बाहर किसी [ व्यक्ति या पदार्थ ] में लिप्तता या लगाव, किसी प्रकार का भी आदत जिसके न मिलने पर मन अशांत,बेचैन होता हो ,यही मन का विकार ग्रस्त [बीमार] होना है ! अर्थात मनोरोग है !

2.स्वस्थ वही है जो आत्मस्थ है [स्व=आत्मा ] ,अर्थात जिनका मन [बुद्धि] स्व=आत्मा में लगा हो, समाहित हो ! आत्मा के समाधान से कार्य करे ! बाहर से निर्लिप्त हो, बाहर से निर्लिप्त हुवे बिना भीतर बुद्धि का आत्म-योग नहीं होता !

3.निर्लिप्तता के सम्बन्ध में श्री सद्गुरुजी निम्न दृष्टान्त देकर समझाये है
—-१. प्लेटफार्म फ्रेंडशिप अर्थात ट्रेन में जब हम सफर करते है तो लोग मिलते है, उनसे हम बाते करते है ,साथ में आसपास बैठते है ,जरूरत पड़ने पर एक दुसरे की सहायता करते है ,खाना खाते है , लेकिन अपना-अपना स्टेशन आने पर ट्रेन से उतर कर टाटा ,बॉय -बॉय करके चले जाते है ,उसमे लिप्त नहीं रहते ,संसार में ऐसा ही रहना है !
—-२ .पहले व अभी भी धनाड्य श्रीमंत लोग अपने बच्चों के लालन -पालन के लिए धाय रखते है, जिसे धाय माँ कहते है, वह बच्चे के पालन -पोषण माँ से बड़ कर करती है ,पर उनके मन में ये रहता है कि ये बच्चा मेरा नहीं है ! ऐसा ही निर्लिप्त रहे ! जो भी करे लेकिन मन बाहर किसी में लिप्त न हो , तभी मन भीतर विराजमान ब्रम्ह से जुड़ पायेगा अर्थात् आत्मयोग होगा !

बाहर के पट मुंद के तू भीतर के पट खोल रे तोहे हरि [ पिया ] मिलेंगे !

4.मन का अंतरात्मा से पूर्ण मिलन [योग] के बिना मनुष्य बाहर ये मिल जाय तो मैं तृप्त [सुखी] होऊंगा वो मिल जाय तो तृप्त होऊंगा , इस प्रकार सुख के तलाश में , मकड़ी जैसे जाल बुनकर और उलझता जाता है ,फंसता जाता है ,वैसा ही मनुष्य बंधन में पड़ कर अशांत-व्याकुल होते जाता है ! व मृगमरीचिका की तरह अतृप्त , बेचैन ,अशांत ,चिंतित , व्याकुल भटकता रहता है ! भीतर मिलन [आत्म-योग ] के बिना बाहर भी मिलन नहीं हो सकता ! जब तक भेद है ,संशय नहीं जाता , मनुष्य बेचैन रहता है ,शांति नहीं मिलती ! आत्मज्ञान हुवे बिना भेद समाप्त नहीं होता ! हमें मनुष्य जीवन आत्म ज्ञान प्राप्त कर समर्थ होने के लिए ही मिला है ! पर हम इस मुल उदेश्य को भुल कर बाहर उलझे रहते हैं ,औरो में खोए रहते है ,और ये आत्म ज्ञान प्राप्ति के लिए जो ये स्वर्ण संधी प्राप्त है उसे खो देते हैं ! व अंत में काल के गाल में समां जाते हैं ! आत्म ज्ञान के बाद ऐसा कोई ज्ञान नही है जो जानना शेष रहा जाता है व ऐसा कुछ नहीं होता जो अप्राप्त हो ! वह पूर्ण हो जाता है ! इससे स्वयं समर्थ होते हैं व औरों के समर्थ होने में सहायक होते हैं ! यही जन्म का मूल उद्देश्य बताया गया है व यही धर्म [कर्तव्य=करने योग्य कर्म है ] यही आत्म योग है ! भक्तियोग ,ज्ञानयोग,कर्मयोग है सब एक ही है ,पर्यायवाची शब्द हैं सबका एक वाक्य आत्म् योग है – अर्थात भीतर विराजमान आत्मा [परमात्मा] से बुद्धि का योग [मिलन] —

5.राम = आत्माराम [परमामा ] ब्रम्ह ,आत्मतत्व का चिंतन करने वाले अर्थात् मन से अपने अंतरात्मा में रमने वाले – सुजान ,ज्ञानवान् समर्थ भगवान हो जाते हैं ! व काम [विषयों] अर्थात् बाहर अन्य किसी में – द्वैत भाव में रमने वाले या चिंतन करने वाले ————-

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
भावार्थ : विषयों का चिन्तन करने वाले की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

भावार्थ : क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और, बुद्धि का नाश हो जाने से मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है !

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