निर्विकार

  • हमारे अंधकार को मिटाकर जो हमें प्रकाश में ला दे,ज्ञान करा दे,बोध करा दे,आत्मबोध करा दे- उसको सतगुरु कहते है। एक सत् के सिवाय और कुछ नहीं है,ये ही सत है।आत्मा ही सत् है।तत्सत उसी का नाम ऊं है।
  • आप अपनी कुंडलिनी याने आत्म शक्ति को जगाइये।आप शक्तिमान बनें, ज्ञानी बनें।इसलिए बार बार जन्म मिलता है। वो कुंडिलिनी ही है,जगी हुई,उसी को महाशक्ति कहते है,उसी को सत्पुरुष कहा गया है,उसी को सतगुरु कहा गया है।ये चारों नाम है इसके। इसलिए पुरुष एक ही है,एक ही ईश्वर है। बाकी सब मायोपाधियाँ है,जिसके पीछे हम मारे मारे फिर रहे है। सभी में ईश्वर है लेकिन ईश्वरत्व जो गुण है वो है क्या उनमें? ईश्वर और ईश्वरत्व में यही अंतर है।ईश्वर दुनिया में नाना नहीं है, अनेक नहीं है,एक ही है। उसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, मत्सर का स्पर्श भी नहीं है। ये आत्मा तो निर्विकार है,निराकार है, एनर्जी है, डिवाइन एनर्जी है,उसका कोई शेप नहीं है। लेकिन वो अपने आपको ज्योति रूप में प्रकट कर देता है। वो स्वयंभू है, सर्वज्ञ है, सर्वत्र है, हर चीज में है,परंतु सबमें होते हुए भी सबसे अलग है।यही परस्पर विरोधी है।
  • कोई समझ नहीं पाता,क्योंकि वाणी, क्रिया और परिणाम तीनों से परे है वो। ये तीनों जहाँ समाप्त होता है वहाँ वो शुरू होता है। इसलिए तुम घबराते हो। जब वो शुरू हो जाता है तब तुम्हारे सामने लाइट आ जाती है। अभ्यास करते करते लाइट में चले जाते है तो वहाँ सांस कहाँ रहती है? वो तो अलग देह है,अलग जग है,और अलग स्टेज है। वहाँ आनन्द के सिवाय कुछ भी नहीं रह जाता। ज्योति दर्शन होता है ये चैतन्य है।
  • आत्मा चैतन्य है,ज्ञान स्वरूप है। बराबर ज्ञान होता है,दिखता है, समझ में आता है। परंतु इन आँखों से नहीं दिखता। ध्यान करके,ध्यान में ही जान पड़ता है। नाना जन्मों के आवरण धीरे धीरे हट जाते है,और अखण्ड ज्योति के दर्शन होते है।केवल बोध होता है,इच्छा भी नहीं रहती।
    ।। श्री गुरुजी।।

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