प्रकृति

  • बिना सब तरफ से मन को समेटे ईश दर्शन नहीं होता।वासना दूर होते ही परमात्मा दिखाई पड़ता है।जब साधक की सभी विचार तरंगें मन में समा जायें, तब वह शक्तियुक्त हो जाता है।
  • बाहर के संस्कार अशान्ति उत्पन्न करते है,इन संस्कारों को एक एक करके हवन कर देना है।वृत्तियों के क्षीण होने पर विकार नष्ट हो जाते हैं।बुद्धि त्रिगुणमय है,इसे गुणरहित करें तब पुनर्जन्म नहीं होगा।इसके फल को भोग विराग कहते है,विराग ही समापत्ति है।ब्रम्ह अवस्था रहित और प्रकृति अवस्था सहित है।तीन अवस्थाएँ, जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति,तीन गुण की हुई।जहां पर प्रकृति अवस्थारहित हुई,हलचल बन्द हुई,ब्रम्ह के स्वरूप में परिणत हो गई।उसका लय करना है,माने प्रकृति(अवस्थासहित)ब्रम्ह
    (अवस्थारहित)के सम्बंध को जान लिया,उसी का अभ्यास करना है।ब्रम्ह के समान सत्तावान बनना है।
  • संकल्प है तो विकल्प भी है,इसलिए दृष्टा भी नहीं दृश्य भी नहीं,ऐसा(ब्रम्ह)है।जब चित्त शुद्ध हो जाता है,तब वह मणिवत हो जाता है,और तब अतीत अनागत दिखने लगता है।
  • प्रारब्ध माने पूर्व का जो संस्कार लेकर आये है।अभ्यास किया और जन्मना जायते शुद्रः से प्राप्त को मिटा दिया।काम क्रोध लेकर जो पैदा हुआ,अभ्यास के द्वारा ये विकार मिटते जाते है।नये संस्कार अपने में डालकर,शिक्षा दीक्षा के द्वारा विद्वान और सामर्थ्यवान हो जायेंगे।
  • आंखों के सामने का दृश्य या कानों के सामने की ध्वनि होते हुए भी,मन यदि बुद्धि के साथ और बुद्धि आत्मा के साथ संलग्न है।तो मन पर दृश्य या ध्वनि का परिणाम नहीं हुआ या संस्कार नहीं बने।प्रकृति,साम्यावस्था को प्राप्त कर,या शुद्ध सतोगुणी होकर,प्रति प्रसव के रूप में पुनः ब्रम्ह स्वरूपा,रूप में प्रतिष्ठित हो गयी।प्रेक्टिस इस टू अटैन द वैक्यूम आर थाटलेस स्टेट।
    ।।श्री गुरुजी।।

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