—-उसे फिर से यह शरीर प्राप्त नहीं होता है,शरीर प्राप्त होता है।लेकिन ज्योर्तिमय पिंड है,उसका शरीर ज्योर्तिमय हो जाता है।
—-रूप तो खोल मात्र है,अंदर वही है,और मैं ही वही हूँ।स्वरूप चिन्तन के इसी भाव में मगन रहते है।ज्ञानियों का यही भाव है,यही ज्ञान है।
—-एक सेल से आप,अनेक सेल में देह पाये है।अब आकुंचन के द्वारा ,उसी सेल रूपी बिंदु से देह को प्राप्त करना है-ज्योर्तिमय देह।
—-आत्मज्योति यह इतना सुंदर है कि उसमें लीन होने से सब कुछ आनन्दमय हो जाता है।पुण्य और पाप से परे हो जाता है।तल्लीनता(उसमें/उसके) को प्राप्त करना,उस आनन्द में मगन रहना,यही ध्येय है।
—-यह आत्मज्योति है वह ही कल्पतरु है,सब ऋद्धियाँ सिद्धियां इससे सम्भव है।
—-ज्योति के रूप में उसका ध्यान करना चाहिए, जपना चाहिए,इससे जो आनन्द प्राप्त होता है-वही सच्चिदानंद है।उसे ही पकड़ना है।
—-गुरु प्रसाद से दिव्य शक्ति कुंडलिनी जब वह भ्रुर्वोमध्य में खड़ी हो जाती है-तब सम्पूर्ण ब्रम्हांड प्रकाशमान हो जाता है।
—-पलक मारने मात्र में जो समय लगता है,अगर उतना भी आपको मिल जाय,ज्योति दर्शन हो जाय तो आपका कल्याण हो जायेगा।देखिए आप लोग उसी ओर जा रहे है।
—-दृश्य का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।द्वैत से मुक्त होकर भगवान की अप्रत्यक्ष अनुभूति करते रहता है।एकत्व में आने के बाद,स्थिरता को अपनाना पड़ता है।जब वह अपने आप में लीन हो जाता है-तब योगक्षेमं वहाम्यहम,स्वयं होने लगता है।
—-अभ्यास इतना करो कि आत्मज्योति के सिवाय कुछ न रहे,यही परम ब्रम्ह है,यही अहं ब्रम्हास्मि है।
—-ये जो अखण्ड ज्योति है,सारे ब्रम्हांड में फैल जाती है।एक ज्योति के सिवाय ब्रम्हांड में कुछ भी नहीं है।स्त्री या पुरुष तो बाहरी रचना है,भीतर एक ज्योति के कुछ नहीं है।
—-आपकी बुद्धि में सत्य के सिवा कुछ नहीं रह जाता,वो जैसा सोचे,जैसा चाहे,वैसा होता है।आत्मा को देखकर,आत्मज्योति को देखकर,आत्मज्योति में उसका प्रवेश हो जाता है।माने परम शक्ति,आपको प्राप्त हो जाती है।सारा हित(अपना,समाज,राष्ट्र का)इसमें निहित है।
—-लव मात्र भी ज्योतिदर्शन हो जाय,तो प्रत्यवाय नहीं है,अर्थात वो घटता नहीं है,बढ़ता चला जाता है।
—-जिससे(पद्धति) आप लोग अभ्यास करते है,और ज्योति दर्शन हो रहा है,उसे हमने धर्म कहा है।जब से आप दर्शन करते है,उस घड़ी से किये गये कर्मों का प्रारब्ध नहीं बनता।
—-मैं सब कुछ गोल्डन लाइट में देखा हूँ।मैंने अपना मूल शरीर देखा,इस शरीर का कहाँ से आदि और अंत है,शारिरिक अवयवों का कार्य संचालन सभी देखा है।
—-शरीर को अपना मानकर देखते रहोगे तो संसार ही दिखेगा।जब इसे अपना न मानकर देखोगे-तो सर्वत्र परमात्मा ही दिखेगा।
—-एक बार भी ज्योति स्वरूप आत्मा का दर्शन हो जाय,उसकी तुलना में दश दश अश्वमेघ करने वाले भी नहीं आते।
—-उसका कोई नाम नहीं,ॐ को ही कहा गया,वो आत्मदेव है-जो अपने अंदर स्थित है,स्थिर है।स्वयं ज्योति है,सूर्य सा वर्ण है।हमारे अंदर बाहर ऊपर नीचे है,हम उसके अंदर है।
—-सूर्य माने ज्योति माने ज्ञान।आत्मा रूपी सूर्य जब प्रकट हो जाता है-तो क्या नहीं हो सकता?वो जैसा बोलेगा वैसा होगा, वो चलेगा तो दुनिया चलेगी।केवल संकल्प मात्र से सब कार्य होते है।
—-Light of god surrounds me-यह सत्य है।यह सत है,यह परम ब्रम्ह है।
—-ये तुरीय अवस्था है,उसका शरीर प्रकाशमय हो जाता है।ये वो शरीर है, जिसे न आग से जलाया जा सकता है,न शस्त्र से काटा जा सकता है,न हवा से उड़ता है,न पानी से भीगता है।
—-मैं या अहं के समाप्त होने पर,ज्योर्तिमय पिंड या एबव टाइम एंड स्पेस,अनहद,या सेंटर ऑफ पीस- के ऊपर की स्थिति प्राप्त कर लेता है।
—-जो ज्योर्तिमय पिंड में चला जाता है फिर उसको क्रोध नहीं आता है।
—-अंदर बाहर सब जगह ज्योति है।वो ज्योति हमको दिखाई नहीं देती,लेकिन बिल्कुल दिखाई देती है।बिल्कुल सत्य है-आत्मा स्वयं ज्योर्तिभवती।
।।श्री गुरुजी।।