बुद्ध पूर्णिमा

–बुद्ध पूर्णिमा पर स्मरण-नमन————————–
बुद्धम ,शरणम् गच्छामि नही , बुद्ध जिनके शरण में गये ,जिनसे उन्हें बोधित्व [ तत्व का बोध अर्थात आत्मज्ञान ] प्राप्त हुवा उनके शरणम् गच्छामि !
—————हम बताये मार्ग में चलने के बजाय मार्ग बताने वाले को पकड़ लेते है मंजिल इसीलिए नही मिलती ! ————-
—————जिनका ध्यान स्वयं ब्रम्हा जी ,भगवान विष्णु , महादेव शंकरजी , भगवान श्री राम , हनुमान जी , भगवान बुद्ध व सभी साधक ,सिध्द, सुजान ,भगवान करते है , जो सम्पूर्ण सचराचर में शक्तिरूप में विदमान है, जिनकी चेतना से हम [सम्पूर्ण चराचर,अखिल ब्रम्हान्ड ] चैतन्य है ,प्रकाशित है , सुन्दर है, सुगन्धित है ,उस सर्वेश्वर ,आत्माराम [अंतरात्मा =परमात्मा ] ,आत्म देव का मै मुमुक्षु शरण लेता हूँ !
—————पंच तत्व के शरीर को नही पंचतत्व के शरीर को धारण करने वाले तत्व[परमात्मा ] अर्थात आत्मा राम को भजना है ! देह को नही देही=देह को धारण करने वाला [आत्माराम ] =हमारे शरीर व पुरे अखिल ब्रम्हांड व सम्पूर्ण चराचर को धारण करने वाला शक्ति [तत्व] अर्थात परमात्मा ,अंतरात्मा को जपना है ! वो निराकार है , वो ज्योति स्वरुप है -आत्मा स्वयं ज्योतिर्भवती ! अल्लाह नूर है l गॉड इज लाइट l भाषा भिन्न है पर हो है एक ही यही राम [ईश्वर ] है ! जिन्हें इनका बोध हो वह सगुण रूप में राम [ ईश्वर ]है ! यही बीच बीच में सगुण रूप में भी प्रगट होते है ! जैसे त्रेता में राम रूप में द्वापर में कृष्ण रूप में वास्तव में यही सद्गुरु है सद =आत्मा अर्थात आत्मा ही सद्गुरु है जो हममे सबसे निकट हमारे अंतरात्मा है !जितने मन्दिर मस्जिद गुरु द्वारा गिरिजाघर व ज्योति दर्शन जो है वो स्मारक है अर्थात कारक [ईश्वर] का स्मरण दिलाने वाला ! कारक [ईश्वर]जो सर्वत्र है व सबसे निकट हमारे भीतर आत्मरूप [शक्तिरूप ]में विद्यमान है जो सबका ईश्वर है !
———– —हरि व्यापक सर्वत्र समाना प्रेम ते प्रगट होई मै जाना —
—————सीया राम मय सब जग जाना [गोस्वामी तुलसीदास ] ——-
————–अपने सहित हर रूप में ईश्वर दर्शन यही यथार्थ दर्शन है –यही प्रेम-ज्ञान-भक्ति -योग है– ! – व इसी राम को जपना है ! ——-और ये है कबीर ,तुलसी ,सुरदास ,मीरा ,भगवान महादेव के राम ! राम के ईश्वर ,रामेश्वरम ! सर्वं ईश्वरम ——————————————-कृष्ण, आत्मा [परमात्मा ] का नाम है ! जो कृष धातु और अन प्रत्यय से बना है [ कृष +अन ] कौन कृष्ण ? कृष जिसका ष हलन्त है ! कृष =कर्ष =आकर्षण Attraction जिसने सबको आकर्षित किया है, धारण किया है !
———अर्थात जो समपुर्ण संसार को आकर्षित किया है, धारण किया है उस शक्ति -आत्मा [परमात्मा ] का नाम कृष्ण है ! जो घट -घट ,कण -कण ,विश्व के अणु रेणु में विद्यमान है ,इसलिए विष्णु भी कहते है !जो सम्पूर्ण चराचर में ,सबमे शक्ति रूप में व्याप्त है ,जिनकी चेतना से हम सब चैतन्य -प्रकाशित -सुगंधीत -सुंदर -शक्तिमान है , ऐसी धारणा के साथ अपने भीतर विराजमान आत्मा [परमात्मा, अंतरात्मा ] को भजेंगे तब बुध्धी का आत्म योग होगा ! अर्थात परमात्मा को प्राप्त करेंगे ,योग भीतर होता है ,उनको प्राप्त करना मायने ज्ञान-सामर्थ -रूप में वही हो जाना है ! बाहर भी वही है पर द्वैत भाव से भजेंगे तो आपकी संकल्प , कामनाए पूर्ण होगी लेकिन आप उन्हें [परमात्मा ] को नहीं प्राप्त करेंगे , क्यों कि बुध्धी का आत्म-योग भीतर ध्यान-योग अभ्यास से होता है ,ऐसा भजना ही सही है ! द्वैत भाव से बाहर भजेंगे तो योग नहीं होता ,आत्म -योग के लिए ऐसा भजना अविधी पूर्वक है ! जितने मंदिर , देवालय आदि है ,वे सब स्मारक अर्थात लक्ष्य का स्मरण दिलाने वाला है ! कारक-सर्वत्र कण -कण में सम्पूर्ण चराचर में व सबसे निकट हमारे भीतर विराजमान है !
———————श्री मदभगवत गीता -७ वा अध्याय ———————
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥
भावार्थ : उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं॥20॥
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥
भावार्थ : जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ॥21॥
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥
भावार्थ : वह उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है॥22॥
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥
भावार्थ : परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं॥23॥
टीप – मुझको प्राप्त होना अर्थात बुध्धि का आत्म योग होना =वही हो जाना =ज्ञान सामर्थ गुण रूप सबमे पूर्ण हो जाना .समर्थ होना ,भेद समाप्त हो जाता है ,फ़िर हरि है मै नाहि —
बाहर के पट मुंद के तू भीतर के पट खोल रे तोहे हरि मिलेंगे —
।।गुरूजी।।

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