वह मैं ही हूँ।

आत्मा स्वयं ज्योतिर्यभवती।
—-यही अग्नि है।इसके उदीयमान होने के बाद सम्भलकर रहने की आवश्यकता है।अन्यथा जो हम कहते,करते है भोगने आना पड़ेगा।
—-जो भोगना है अभी भोग लो।दोषों से बचते रहे इन्द्रियों पर काबू रखे।
—-जब तक आप ध्यानमग्न है,आप सतचिदानन्द स्वरूप है।आप भी वही है।
तुर्यातित अवस्था प्राप्त करना ही लक्ष्य है,जिसमे साधक को कोई होशो हवास नही रहता,अपने मस्ती में मस्त रहता है।
—-जब साधक अभ्यास करते करते ब्रम्हरन्ध्र में पहुँचता है,तब पूर्ण हो जाता है,ब्रम्हांड ज्योति से भर जाता है।
ब्रम्हरन्ध्र में संशय निर्मूल हो जाता है।अनन्त जन्मों का,कर्मो का,भूत भविष्य का पूरी सफाई हो गई।तब वह परम ब्रम्ह हो गया।
—-उत्साहित होकर अभ्यास करना चाहिये।रोकर या सुस्त होकर नही।एक ही जन्म में होना।
—-ये जो विकार है।आपके मन में और बुद्धि में,ये ही सब गुण हो जाते है।
तब न कुछ करते हुए,न सोचते हुए,सब अपने आप होता है।
—-परम् पद क्या है?आत्मा अपने आप को मुक्त कर लेता है।
जो अपने आप को जानता है की,मैं ही वह अद्वितीय आत्मा हूँ।वह किसकी इच्छा में शरीर को क्लेश देगा।यह आत्म ज्ञान की बात है।
तदरूप होने पर,नाम लेते लेते जब वह मिला तो पता चला।वह मैं ही तो था।
।।श्री गुरूजी।।

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