वेदांत में भी घुसने पर भी साधुओं के वर्ग है।तीन केंद्र तक तो मायावी केंद्र है, भू, भुर्व, स्वः ये तीनों माया है।ये रावण, कुंभकरण,कंस आदि ये यही तक रहें। उसके बाद फिर वो अवधूत होता है जैसे दत्तात्रेय आदि।उसके बाद वो ऊपर चले जाये तो क्या कहते है, उसको,फिर संत होते है।तरण तारण मृत्यु केंद्र से, जिसने अपने मृत्यु को देख लिया। मृत्यु पर पैर रखकर ऊपर चला गया उसको संत कहा गया। मी आपुणे मरण पाहिले नर डोरा, तुकाराम महाराज बोले मैं अपनी मौत अपनी आँखों से देखा हूँ, सब कोई जो है सब, मरे हुए पड़े है सब,मेरे भी शरीर है मरा हुआ पड़ा है,उसमें जाने का मन ही नहीं होता है।आज किताब कोई नहीं पढ़ते,किताब पढ़ो आपको सच मिलेगा ये,हमारे पास साधक हैं ऐसे इसलिए मैं कह रहा हूँ,जीवित है। तो तात्पर्य है,ये कहने का ये संत है।संतन है,त भविष्यत् है लेकिन नहीं ये इसी जन्म में, स माने पूर्ण, पूर्णता की ओर, पूर्णत्व की ओर,वो इधर हो गया, जी हाँ।
सब पीछे जाते है,योगाभ्यास में पीछे जाना है।आगे नहीं जाना है, प्रगति नहीं है यहाँ,प्रोग्रेस नहीं है,ये इंग्रेस है।जाना है जा रहे है,हम धीरे धीरे,इंग्रेस माने मूव हो रहे है,गतिमान है।गति ये सब नहीं है, लेकिन ये दुर्गति है, न सुगति है।आपको सदगति चाहिए, क्या चाहिए सदगति।इस ओर में जाने के बाद यहाँ सब सदगति है।यहाँ न पुण्य है न पाप है।छ्ठे केंद्र में जाने के बाद जो हमने किया है,सब सामने आते है, वो बात दिखती है,आगे जाने के बाद दिखती है।लेकिन ऐसी स्थिति हो जाती है।उसके ऊपर जाने के बाद और ऊपर, ऊपर जब स्पष्ट/स्पर्श होने लग जाता है।भोगते-भोगते सब बातें जब हो जाती है।ये तो पांचवे केंद्र में जब जायेंगे, आप बेहोश हो जायेंगे।छ्ठवे केंद्र में वो बेहोश,अरे वो बेहोश नहीं है वो, वो होश में है। लेकिन दिखता अलग है।हम रोज अभ्यास करते हैं,लेकिन डर जाते है,ये साला लकवा तो नहीं हो जायेगा।बैठे बैठे इतनी गर्मी फूंकती है, कपड़ा उठा के फेंक दें।क्या बात है,इतनी गर्मी हो गई, बुखार तो नहीं हो गया।बिगड़ तो नहीं गया,फट तो नहीं गया कोई नाड़ी – फाड़ी, नर्व जो है ये है। चक्कर आ गया मूर्छा आ गया। ये सब होते है ये सब हैं। ये लक्षण है अंदर घुसने के, पसीना आता है, मूर्छा आती है, बैठे – बैठे आप अंगभेद होता है, ये सब बातें हैं। ऐसे अंदर जाता है कोई, मार्ग पर चलता रहे, आदेश का पालन होता रहे। ये जो आपके अंदर भय है, वो भय दूर हो जाता है। मरते समय जिसको स्वाभाविक मृत्यु जिसको कहते है, जिसको प्राकृतिक मृत्यु कहते है। नेचुरल डेथ जिसको कहते है, वो सब दिखता है, उसको कहाँ जाना है।
ये है चार शब्द, शायद कबीरदास ने यही कहा हो। दास कबीर ले आयो संदेशवा, चार शब्द कही,चलो वह देशवा।ये हो सकते हैं, चार शब्द की भाई सम्हलों, सम्हल् जाओ तुम। ये जो बाहर जो हमारी इंद्रियाँ बनी है, बाहर के लिए है। जब तक भीतर आप जायेंगे नहीं, तो ये बाहर वो है। वो व्यक्ति चाहे कितना ही पूजा पाठ करे, लेकिन ये जो विकार है, उसमें सब,इसके बिना नहीं होता है। उसका व्यवहार बड़ा नम्र होगा, बड़ा नीतिपूर्ण होगा, बड़ा सब, लेकिन स्वयं जो है उसकी ये जो विकार है,नहीं जा सकता। जब इंद्रियाँ बहिर्मुखी है और वो है, करके आप विश्वास नहीं कर सकते, अंतिम स्वास तक वो भयंकर खूनी हो सकता है, किसी भी समय, ठीक है।
इसलिए हम यहाँ,अपने पर विश्वास करते हैं, और वो ही हम सबको सिखाते हैं, आप अपने पर विश्वास रखिये। ये नहीं सिखाता हूँ, अपने पर अविश्वास करो। मेरे शब्द ये नहीं, मेरे शब्द याद रखना, अपने पर विश्वास। विश्वास जानते है न, विश्वास, विशेष श्वास, हमें विश्वास देता रहें, हाँ। जब तक श्वास है तब तक अपने पर भरोसा रखो।जो कुछ करो, अपने भरोसे से करो, जो कुछ देओ, भरोसे से देओ। जो कुछ पाओ, भरोसे से पाओ। विश्वास ये है जब तक श्वास है जब तक,ठीक है। न श्वास रहा तो,परीक्षा पूर्ण हुई,माने बाल बच्चों से वसूल कर लेगा। हम विश्वास का अर्थ ऐसा करते हैं। श्वस् धातु से बना है,वि उपसर्ग है, विश्वास। जब तक श्वास है जब तक सारा खेल,नहीं तो काहे का खेल, उठा ले चल। इसके पहले अपने आपमें भरोसा करो। भर, सारा भार अपने पास में, अपने आपको जानो न, रियल जो है।रियल जो है, जमात है वो
सत्य है। इसमें से जब वो रास्ता खुल जायेगी आपकी मार्ग दर्शक अगर मिल जाये और आदेश का आप पालन करें। आपमें भी है। ये स्थिति है जाते जाते आपमें बताये मैं, ये स्थिति प्राप्त होती है। और उसी में घुसता चला जाता है।
जब आज्ञा चक्र में आता है जब सिक्सथ प्लेन में आता है, तो वो क्या हो जाता है वो हंश हो जाता है। ये है तुलसीदास जी लिखे हैं सोअहं अस्मि एक वृत्ति अखण्डा दीप शिखा सोई परम् प्रचण्डा, आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा तब भव भेद मूल भेद भ्रम नासा। इतना साफ लिखा है, वो जो अखण्ड ज्योति है, आल यूनिवर्स जो ब्रहान्ड में भर जाता है। वहाँ पहुँचने के बाद अभ्यास करते करते, एक जन्म की बात भी है, एक सेकण्ड की भी बात है। और न मालूम है, कितने जन्म बितते है। यहाँ कोई कुछ नहीं बोल सकता है। जब ये होता है, यही हंस है। हँसा(अहं, त्व) सोअहं अस्मि। वो जो देख रहा है वो खुद को देख रहा है, ये अपने को देखना है। अभी जो दिखता है वो अपने वो नहीं है। वो तो अभी बहुत दूर है। ये अपने को देखना है। तो तात्पर्य ये है हमारा कहना, यही काम, क्रोध, मद, लोभ, जिसे हम विकार जो कहते हैं, अंदर जाने के बाद वे शुद्ध हो जाते है। हमारी प्रकृति जो है, हमारा स्वभाव जो है वे शुद्ध हो जाते हैं। और हँस तत्व हो जाते हैं। मुद् मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथ राजू। मुद् माने मुदित मोद में, आंनद रहता है सदा। बिल्कुल आंनद, किसी भी स्थिति में रहें वो हँस/संत, वो आंनद में है। और वो मंगलमय है जहां जाता है लोगों का कल्याण होते जाता है।
।। श्री गुरुजी।।