प्रत्येक व्यक्ति चाहे किसी आश्रम में हो,चाहे किसी भी वर्ग या वर्ण का हो-जन्मतः सब शुद्र है।
जनेऊँ संस्कार/उपनयन संस्कार जब कर दिया जाता है-द्विज/दूसरा जन्म, होता है।
वेदों के अध्ययन के पश्चात अभ्यास जो जाता है,तब वो-विप्र होता है।
ब्रम्ह,जो परम आत्मा हो जाता है,तब उसको -ब्राम्हण कहा गया है।वो चाहे कोई भी हो।
अभ्यास,अध्ययन के बाद उस परम को पाकर जब वो स्थिर हो जाता है,तब वो-मुक्त माना गया है।
जीवन-मरण से,इस अन्नमय कोष से उसकी मुक्ति हो जाती है।छुटकारा हो जाता है।तब उसका-सम्यक जीवन,दिव्य जीवन प्राप्त होता है।
सांसारिक प्रपंच से कोई कहीं बचता नहीं,लेकिन उनकी शक्तियां ,उनके वैभव तथा उनके देय सब भिन्न होते है।हमारा अन्नमय कोष होने से हम ये सब देख नहीं पाते,समझ नहीं पाते,एवं जान नहीं पाते,लेकिन ये सब है।इस प्रकार हमारा जीवन बदलता जाता है।
8,अलौकिक का अर्थ होता है-जो न देखा जाय, किसी का बनाया हुआ नहीं,किसी का लिखा हुआ नहीं अर्थात पौरुष न हो।
वैदिक काल में वेदाध्यायी लोग रहते थे,वेद जो है, जिनके हमारे सामने चार भाग कर दिये है-अलौकिक है।
तव्य याने योग्य,तो योग्य क्या है?अपने आपको जानना,अपने आपको समझना,इसमें जो आत्मा है,वही जीव है,वही आत्मा है,वही परम है-अपने आपको जानना ये प्रथम कर्तव्य है।
तत्वमसि-तो तुम्हीं हो और कोई नहीं।
आत्मब्रम्ह-वो तुम्हीं हो,कोई दूसरा नहीं।
तुम्हीं महान हो,पर बोलने से नहीं होता,करने से होता है।
आपमें ही वो है,वो शक्ति है,उसे आपको विकसित करना होगा,प्राप्त करना होगा।
ये वेद जो मिला हुआ है,ये योगियों को प्राप्त हुआ है।
दीर्घकाल की समाधि में रहने पर,उनके ऊपर से जो मिला,आकाशवाणी के द्वारा-दिव्य वाणी है वो।
वो सत्य है,आज भी सत्य है,तब भी सत्य था और आगे भी रहेगा।
।।श्री गुरुजी।।