सहस्त्र सूर्य

किसी के हम कोई कार्य करे किसी को मदद करे और उसे बोल दिए अर्थात बक दिए ,तो वह बदी हो जाता है ! बक-दीया मायने बदी हो गया है ,व दुसरे बोले की फला ने किया [ नेकि ] तो वह नेकि होता है !
———ज्ञानी जन मौन रहते है , क्यों की वो कर्ता को जानते है ,इसलिए मै नही होता , कर्तापन का भाव नही रहता –विचार करके देखे तो वो शक्ति [ईश्वर] साथ न दे तो हम पलक नही झपका सकते !—————————————
———पुण्य और पाप दोनों बेड़ी [ बंधन] है ,एक सोने की बेड़ी है दुसरा लोहे की बेड़ी है ,दोनों ही बंधन का कारण है ,आत्म ज्ञान होने पर मै अर्थात कर्तापन का भाव समाप्त हो जाता है ,फिर न पुण्य संचय होता है न पाप -यही मुक्ति है ! व यही जन्म का मूल उद्धेश्य है !
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उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥

भावार्थ : इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपद्रष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भर्ता, जीवरूप से भोक्ता, ब्रह्मा ,विष्णु ,महेश आदि का भी स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानन्दघन होने से परमात्मा- ऐसा कहा गया है॥22॥
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प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥

भावार्थ : और जो व्यक्ति सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ देखता है॥29॥
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यदाभूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति ।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥

भावार्थ : जिस क्षण कोई व्यक्ति भूतों के पृथक-पृथक भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों [ चराचर प्राणी ] का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है॥30॥
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यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥

भावार्थ : हे अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र = हम आप व सभी चराचर अखिल ब्रम्हाण्ड , को प्रकाशित करता है॥33॥

-श्री कृष्ण [ गीता १३ वा अध्याय ]

अहं ब्रह्मास्मि-“मैं ब्रह्म हुँ”,
तत्त्वमसि-तुम भी वही हो,
..सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्
“सर्वत्र-सभी ब्रह्म ही है” ।

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