।। ध्यान ।।

दीक्षा के समय गुरु शिष्य के अन्तर में प्रविष्ट होकर अंतर्यामी रूप से शब्द ब्रम्हमय ज्ञान का दान करता ह

गुरूजी के चरणों को लक्ष्य में रखना ,ध्यान करते करते मणिवत ,स्फटिक मणि के समान दसो नख हो जाते है,तब ग्रंथि,संशय दूर हो जाते है।

स्व का अध्ययन ही ध्यान है।उस परमतत्व की ओर जहाँ से आये हो उन्मुख रहो।

जब तक आप ध्यानमग्न है,आप भी वही है।

केवल अपने चित्त को ,अपने मन को एक देश में बांधना है और जैसा दीक्षा में दिया गया वो ध्यान में लाना है,वो धारणा है,मन को एक जगह लगा देना है,पकड़ा देना है,बस पकड़कर रखना है ललाट में,भृकुटि के मध्य में दूसरी कोई बात नही।फिर बुद्धि से अंदर देखिये मन पकड़कर रखता है या नही,वेट एंड सी,बस। तठस्थ हो जाओ।ये आदेश है,पालन हो,होता है की नही ,ये नही चाहिये।ये भव है कुरु नही।भव माने अपने आप होता है।कुरु माने करना।

– – -आत्मा तो दृष्टा मात्र है,कुछ न करना ही ध्यान है।
ध्यान में बाघ दिखाई दे ,स्थिर रहे भय के भाव को पचा गये, यही वास्तविक समाधि लक्षण है।यह चेतन समाधि है।
गुरूजी से कोई आदेश प्राप्त करना चाहते हो तो निल होकर उनका ध्यान करे।
ध्यान करना नही बोलता,ध्यान में लाना है।तब तक वो धारणा है।जब ज्योति सामने आती है,तब वो ध्यान है।

जिसका मनन करता है, ध्यान करता है,वह ही हो जाता है।

जब गुरूजी का ,आराध्य का ध्यान किया जाता है,तब मन आराध्यमय हो जाता है और उसी का दर्शन होने लगता है।

– -मन से विकारो का ध्यान न हो ऐसा प्रयत्न करो।ध्यान बन जाता है,तो विचार उदय अस्त होते नही है।

ध्यान से जो हमारे विषय है,वो बाहर चले जाते है,और निर्विषय हो जाते है।

ध्यान जो है मानस ,गुप्त रूप से मनन करना है।मन निर्विषय हो जाता है।

– -हमारे जो विचार उदय अस्त होते रहते है,इस जड़ता को दूर करने के लिये ध्यान करना है।
ध्यान माने गुप्त रूप से केवल मनन करना है।

ध्यान की स्थिति में एक ऐसी अवस्था होती है,जिसमे साधक को जब जैसी इच्छा होती है,उसके संकल्प मात्र से पूर्ण हो जाती है।

ऐसा जो आत्मा परम् है(आदित्य वर्ण ) अजर,अविनाशी है,कोई स्थान नही जहाँ वो नही है,उसका ध्यान करके बुद्धि को पैनी करना है।

केवल आप ध्यान करे भावना में निमग्न हो जाइये,आपके मन में वो जो है,अपने आप को प्रकट कर देता है।प्रत्याहार के बिना धारणा हो ही नही सकती।मन धारण के योग्य हो जाता है,तब आप कुछ नही करते अपने आप होता है।

– -ज्योति के रूप में उसका ध्यान करना चाहिये,जपना चाहिये,इसमें जो आनन्द प्राप्त होता है,वही सतचिदानन्द है,उसे ही पकड़ना है।

– -किसी कार्य को करने से गुरूजी ने मना तो किया नही है,काम से फुर्सत मिलते ही पुनः गुरूजी का ध्यान आना चाहिये।

– -ऐसा ध्येय होना की कभी भी हमारा कल्याण हो और हमको देख करके औरो का भी कल्याण हो।

– -श्वास चल रही है,आप कुछ नही कर रहे है,मात्र दृष्टा है,अकर्ता होना है।

– -ध्यान ही तो मौन है।मौन स्थायी है,ध्यान अस्थायी है।बगैर स्मरण किये वो ध्यान बन जाना चाहिये।मौन का भार बढ़ने पर आत्मदर्शन हो जाता है।
।।श्री गुरूजी।।

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