अपमान- आनंद का कारण

कोई अनादर करें,अपमानित करें तो उसमें दु:खित- विचलित होने की क्या बात है ?

अपमानित करने वाला अज्ञानी है।वह क्रोध नहीं दया का पात्र हैं।

—-अपमान सहन के लिए तो हम जग में आये है,ये बहुत दिनों के बाद समझ में आता है।आचरण में याने अनुभव में तो नहीं,समझ में आता है,और समझ के वैसा रहना हो जाये,तो क्या कहना पड़ता है।
—-सद्गुरु( ईश्वर) की कृपा से अपने आप लौकिक और अलौकिक लाभ प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से मिलता है।मनुष्य अपने कर्मों को,चरित्र को,घटनाओं को,गुरुदिश मार्ग से,नियंत्रित करने में समर्थ है।
—-आप बराबर मलरहित हो जायेंगे, केवल अभ्यास करना है।जो रास्ता बताया गया है,ऐसा ऐसा बैठना है,ऐसा ऐसा ध्यान में लाना है।ये भव है,कुरु नहीं।भव माने अपने आप होता है।
—-विचारों का उदय औऱ अस्त होना बन्द हो जाता है,तभी एकाग्रता होती है।एकाग्रता माने एक (आत्मा) के सिवाय कुछ न रहे।
—-अपने आप को जानने की जो साधना है,इसी को पुरुषार्थ कहते है।चाहे जैसी परिस्थितियां आये अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए,परिस्थितियां आपको उबार देती है।
—-संसार में व्यक्ति सबको प्रसन्न नहीं कर सकता,लेकिन अपने आप को वो प्रसन्न कर सकता है।
—-निष्काम व्यक्ति ही आत्मा का दर्शन करते है,उन्हें शाश्वत शांति मिलती है।जब तक उस अन्तर्यामी गुरु का प्रकाश नहीं होता।बाह्य उपदेश व्यर्थ है।”अहं” आ गया तो वह समाप्त हो गया, गिरते चला जायेगा।
—-जो कार्य तुम्हें करना है,नही बन रहा है,बिगाड़ हो रहा है,यदि केवल संकल्प करोगे,माने मन में रहना है।बताया नहीं जाता,वह धीरे से अपने आप हो जाता है।सभी काम ऐसे ही बन जाते है,इसलिए साधक को कोई चिंता नहीं रह जाती है।
।।श्री गुरुजी।।

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