हमारे लिए जन्म उत्सव है ,तो मृत्यु महोत्सव (मुक्ति) —
—-हमारे दर्शन में मृत्यु शरीर की होती है, ना कि हमारी ।
शरीर वस्त्र है , जिस प्रकार पुराने वस्त्र को त्याग कर हम नये वस्त्र धारण करते हैं ,उसी प्रकार जीव शरीर को त्याग कर पुनः अपनी प्रकृति(सत रज तम) अनुसार नए शरीर को प्राप्त करता है ।
—-जो इसी जन्म में साधना के द्वारा प्रकृति से परे हो जाता है वह दिव्य शरीर को प्राप्त कर लेता है , फिर वह जरा और मृत्यु से परे हो जाता ,वह देश काल से भी परे हो जाता है ।
भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं-
हे केशव –
जो लोग आत्मा-योग पर श्रद्धा तो रखते हैं ,लेकिन पूर्ण मनोयोग से अभ्यास -साधना नहीं करने के कारण ,पूर्णता को नहीं प्राप्त कर पाते ऐसे योग से पथभ्रष्ट -अपूर्ण योगी का क्या होता है , वह छिन्न-भिन्न बादलों की तरह नष्ट -भ्रष्ट तो नहीं होता अर्थात उसका अधोगति -पतन तो नहीं होता , उसका आगे क्या गति होती है?
हे अर्जुन-
योग पर श्रद्धा रखने वाले का किसी भी प्रकार से अहित-पतन नहीं होता , वे स्वर्ग आदि लोको में कुछ काल पर्यंत रहने के बाद उनका पुनर्जन्म होता है, वे पहले से भी अच्छे अनुकूल वातावरण में अर्थात श्री मंतो के घर ,योगियों के कुल में जन्म लेता है और पिछला आत्म-योग रूपी संस्कार, उन्हें अनायास प्राप्त हो जाता है ,जिससे प्रेरित होकर के वह पुनः पूर्ण मनोयोग से योग अभ्यास के द्वारा पूर्णता को प्राप्त होता है !
भक्ति बीज पलटय नहीं जावे जुग अनंत, निच, ऊंच घर अवतरय अंत संत का संग ।।