आत्मबल

—-अपने स्वरूप को भूल जाने के कारण हम निर्बल हो गए है,अपने आपको पहचानकर अपनी आत्मशक्ति को विकसित कर हम पुनः समर्थ हो सकते है।इच्छा कम करो काम क्रोध लोभ सब भाग जायेंगे।संसार में रहने और संसार के कार्य करने में कोई दोष नही,केवल दासी के समान मन भाव रहना चाहिए, सब कार्य करती है किसी को अपना नहीं कहती है।अलिप्त भाव से करना चाहिए।काम करने आवश्यक हो करना,किन्तु मन आत्माराम में लगा रहे।यहां विषयों का प्रवेश नहीं हो सकता।कर्म तो प्रकृति करती है,किन्तु मैं करता हूँ भाव आ गया तो बन्ध गया।
—-जीव ब्रम्ह है समझना।संसार से मन हटाकर बलस्थ होना,वैराग्य है।उपजीविका के पीछे फिर रहे है,यही भोग है।देह भाव गये बिना आत्मानन्द प्राप्त नहीं हो सकता,परावलम्बी का अर्थ है देह रुचि।मूर्ति में ईश्वरत्व का आरोप करते हो तो देह में क्यों नहीं करते हो,इसे डिवाइन(ज्योतिर्मय)करने का (सदा)प्रयत्न करो।चिंताओं और दुखों का रुक जाना ही उन पर निर्भर रहने का सच्चा स्वरूप है।मनुष्य को स्वालम्बी(सतत निष्कामकर्म आत्मा में रहकर)बनकर रहना चाहिए।
—-जीवनकाल में अंतिम सांस तक इसको नहीं छोड़े क्योंकि यह आत्मदर्शन है।आपको स्वयं साधना करनी होगी,अनुष्ठान करना होगा,तब तक वो फल नहीं मिलता।मनुष्य कृतार्थ तभी होता है,जब सत्पुरुष के बताये हुए मार्ग का अनुसरण करके,और उस तरह से अभ्यास रत होता है। मिथ्या दृष्टिकोण जब तक नहीं मिटता तब तक दुःख मिट पाना सम्भव नहीं।
—-प्रचुर सुख सुविधा, धन वैभव और आधिपत्य होते हुए भी मनुष्य का दुःख नही जाता,क्योंकि भीतर के दुःख पैदा करने वाले तत्वों का अंत नहीं होता।आशीष को धारण करने की माने रखने की और उपयोग करने की क्षमता होनी चाहिए।जब तक बुद्धि में आत्मिक प्रभाव नहीं आता तब तक परिवर्तन नही हो सकता।
—-जब आप सतगुरु की बतलाई पद्धति से ध्यान कर स्थिरता को प्राप्त कर लेंगे,(तब)भोग कब आते है कब जाते है पता नहीं चलता।गुरुदिश मार्ग पर चलने से क्लेश अपने आप मिट सकते है,आप समर्थ हो सकते है।गुरुदिश मार्ग से आप ऐसी ताकत प्राप्त कर सकते है,की आप डेस्टिनी को बदल सकते है,इसी जन्म में बदल सकते है।आप ही अपने भाग्य का निर्माता और आप ही उसमें परिवर्तन लाने में सक्षम है।
—-ये ये चाहिए मुझे सामाजिक कार्य के लिए ,हाँ भाई हो जायेगा, यही ब्लेसिंग है।ये ही सत्ता है,ये ही बुद्धि आत्मसात हो जाती है,तब जो आशीष होता है,उससे अपने आप कार्य सिद्ध होते जाते है।
।।श्री गुरुजी।।

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