आत्मा

निरपेक्ष भाव से कर्तव्य करिये, जगत में रहना है, नही रहकर भी रहना है, न कोई स्त्री है, न पुरुष है, न बेटा है न बेटी है, सब आत्मायें है।ऐसी धारणा ही समत्व योग कहलाती है।

शरीर का परिवर्तन है, आत्मा तो सर्वव्यापक है, तो आना जाना कहाँ है?एनर्जी स्थायी नहीं है, अस्थायी है हिलती डुलती है।

आपको इंद्रियों की सीमा को लांघना है, तब वहां आत्मा का प्रवेश है। एक तत्व के अभ्यास से पांचों तत्व विशुद्ध हो जाते है।निरोध होता है, यही सूक्ष्म शरीर है।

इस शरीर में आत्मा अत्यंत असंग है, निर्मल है। टैलीपैथी, इंटयूटिव पॉवर होने लगता है।सभी कामों को बाजू कर आत्मा का अनुसन्धान करना चाहिए।

14वीं एवं 16वीं शताब्दी के बीच ऐसे सन्त हुए जो गृहस्थ थे, उन्होंने गृहस्थ रहकर अपना आत्मकल्याण और दूसरों का आत्मकल्याण किया।

आत्मा यही अग्नि है, इसके उदीयमान होने के बाद सम्भल कर रहने की आवश्यकता होती है।अन्यथा जो हम कहते करते है, भोगने आना पड़ेगा।जो भोगना है, अभी भोग लो।

आत्मा ही सबकी त्राता है।स्व का अध्ययन ही ध्यान है। ब्रम्ह चिन्तन ही ध्येय होना चाहिए।

हमें अपने आप(आत्मा)में रहना है, यही भावातीत होना है, उसे ही मौन स्थिति कहा गया है।

उस परमतत्व से जहाँ से आये हो उन्मुख रहो, अनासक्त होकर अंदर से उसकी प्राप्ति की इच्छा रखने पर दर्शन सुलभ हो जाता है।संसार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है।

जब ईश्वर का सानिध्य महसूस होने लगे हर जगह उसका आभाष हो यही ज्ञान है।तब सभी वस्तुएँ सजीव मालूम होने लगती है, मैं ही वही हूँ, बोध होने लगता है।

श्री गुरुजी वासुदेव रामेश्वर जी तिवारी

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