स्वयं भाग्य के विधाता

हम किसी पर उपकार नहीं करते ,जो करते हैं अपने लिए करते हैं ।
कर भला तो हो भला ,कर बला तो हो बला !

प्रकृति का नियम एक दाना बोएंगे मुट्ठी भर पाएंगे ।

—-कोई कर्तव्य करते हुए यह न सोचे की वह दूसरे के लिए कर रहा है।वस्तुतः वह अपना ऋण ही तो चुका रहा है,सेवा क्या कोई किसी का कर सकेगा?भारतीय संस्कृति की ये मान्यतायें सत्य है,ऐसा सोचना की पिछले जन्मों का कर्ज है,जो चुकाया जा रहा है।दान पुण्य भी भोग है,अतः भूल में न रहे हम दान पुण्य करते है,अतः हमारे भोग चले जायेंगे।
—-हर व्यक्ति अपने जन्मजन्मान्तरों में बोये हुए को ही काटता है।भविष्य का बनना पूर्व जन्मों के देने पाने पर निर्भर (करता)है।मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता है,अतएव उसे सदमार्ग में,सत्कार्य में, जैसा बने,जितना शीघ्र बने,लग जाना चाहिए।केवल ऋण चुकाने ही नहीं,अपने आत्मदेव को प्रसन्न करने हमने जन्म पाया है,इस आत्मदेव से बढ़कर कोई देव नही है।अनन्त सूर्यों का सूर्य है।
—-माँ बाप के साथ साथ (मन बुद्धि द्रव्य जैसा जिस समय जिस रूप में बने) समाज का ऋण चुकाते चलिए, समाज का हम पर बहुत बड़ा ऋण,बहुत बड़ा उपकार है।निष्पक्ष भाव से समाज की सेवा करिये,यही धर्म का व्यवहारिक रूप है।समाज से जो विभक्त नही, वही भक्त है।वो सबमें है तो हमारे में भी है,तो अपने आप को बढ़िया समझो न,धर्मात्मा समझो,पुण्यात्मा समझो।सबका भला करते हुए,सबके सहायक बने रहो।जैसे कामिनी कांचन में बलि चढ़ा देते है,(उसी के लिए हम प्राण भी देते है और लोगों के प्राण भी लेते है)वैसे ही अपने आपको जानने के लिए बलि चढ़ा देना चाहिए।
—-अच्छे मार्ग ,आत्म-योग से आत्मज्ञान के मार्ग में आइये,आपकी जीविका आदि सभी कार्य होने लगते है।चरित्र का निर्माण होकर आदर्श कहलाते है।इससे समाज का कल्याण होता है।ऐसे एक से अनेक हो गए,तो राष्ट्र का,विश्व का हित नही होगा क्या?
।।श्री गुरुजी।।

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