
—-भारत की जो संस्कृति है वह वैदिक संस्कृति है,जिसका मूल आधार है वेद, वेद माने ज्ञान ।
वैदिक काल में हम बहुत उन्नत थे,वो स्वर्ण युग था,उस काल में कोई भीख नही मांगता था,भिक्षा वृति बिलकुल नही थी ।
वैदिक काल में हम दस वर्ग में बटे हुए थे,ये जाती नही था,बल्कि सब समाज थे,केवल वर्गीकरण कर दिया गया था ।
परमहंस,देव,विप्र, मुनि,ऋषी, द्विज,ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र- ये तीन आश्रम थे,शुद्र कोई आश्रम नही था,बल्कि ये सभी थे । प्रत्येक व्यक्ति चाहे किसी भी आश्रम,वर्ग,या वर्ण का हो,जन्मतः सब शुद्र है ।
उपनयन संस्कार के बाद द्विज माने दूसरा जन्म होता है,
वेदों का अध्ययन ,अभ्यास हो जाता है,तब विप्र होता है ।
ब्रम्ह ,जो परम् आत्मा हो जाता है,चाहे वो कोई भी वर्ण का हो,ब्राम्हण कहा गया है।
वेद जो है, अलौकिक है,अलौकिक का अर्थ होता है,जो न देखा जाय, अपौरुषेय याने किसी का बनाया हुआ नही,किसी का लिखा हुआ नही अर्थात जिसमे पौरुष नही।
प्रथम कर्तव्य है,अपने आप को जानना,अपने आप को समझना,इसमें जो आत्मा है,वही जीव है,वही आत्मा है,वही परम् है। परमोतकर्ष में जो पहुँच जाता है,वही परमात्मा है,और कोई दूसरा नही,तो तुम्ही हो और कोई नही,तुम्ही महान हो,पर बोलने से नही,करने से होता है ।
1ऋग्वेद- में कुण्डलिनी जो महाशक्ति है,सत है, गॉड है,अल्लाह है ,अनन्त नाम है,को किस प्रकार जगाई जाय इसका ज्ञान प्राप्त करना है। ये सतपुरष के द्वारा ही होता है ।
2 यजुर्वेद- आत्मसाक्षात्कार कैसे हो,साधना,अभ्यास कैसे करे,ताकि तीनो बाधाये दैविक,दैहिक,भौतिक दूर हो,तो यज्ञ करना है,वो है आत्मयज्ञ।
3 अथर्ववेद- माने प्राणों का स्थान,शक्ति,कार्य और सीमा मालूम होना चाहिये। औषिधि से शरीर एवम् मंत्रो से मन की शक्ति बढ़ाना चाहिये,शरीर एवम् प्राण का बोध होना चाहिए ।
4 सामवेद- सा माने प्रकृति म माने पुरुष याने जड़ और चेतन के संयोग से ये सृष्टि हमारे सामने है ।
हम अपने आप को जाने तब चरित्र का निर्माण होता है,धर्ममचर,सत्यमवद, सत्य बोलो धर्म माने आत्म धर्म से चलो,आत्मसाक्षात्कार यही धर्म है,फिर वो अपने जैसा तैय्यार कर सकता है।
तब अपना,समाज का राष्ट्र का तारण होता है,ऐसा मेरा मत है ।
श्री गुरूजी