ज्योति

—-जितना इस मार्ग में मिलता है वह जाता नहीं बना रहता है, हालत और भी अच्छी हो जाती है यह जो आत्मज्योति है वह ही कल्पतरु है, सब ऋद्धियाँ सिद्धियां इससे सम्भव है, मांगों जैसा मिलता है।
ज्योति के रूप में उसका ध्यान करना चाहिए, जपना चाहिए, इससे जो आनन्द होता है,वही सच्चिदानन्द है।उसे ही पकड़ना है।
—-मन का मैल निकाले बिना न साधना होगी न भक्ति।चित्त प्रसन्न होते ही सारे दुःखों का अवसान हो जायेगा।जहाँ भोग है वहां चिंता,भोग के त्याग से ही सारी चिंताएँ समाप्त हो जाती है।मैंने जो बीज बोया है निष्फल नहीं है और मरते समय आप ज्योति में जायेंगे।हमने ज्योति का आत्मज्योति का बीज बोया है।एक सेल से आप अनेक सेल में देह पाये है,अब आकुंचन के द्वारा उसी सेल रूपी बिंदु से देह प्राप्त करना है,ज्योतिर्मय देह।यह बिंदु ज्योतिर्मय है।अभ्यास के द्वारा दिव्य आंख(तीसरी आंख)खुल जायेगी।
—-कामना वासना का संकल्प न करें, विचार ही समय पाकर मूर्त रूप धारण करता है।
मौन स्थिति आने पर साधक निंदा स्तुति से दूर रह सकता है।
प्रेम और अनुराग बिना वो नहीं मिलते।तुम्हें अगर शक्तिमान होना है,तो उस सत वस्तु को मत छोड़ो,बाकी सब कुछ छोड़ो और सत को पाओ।
—-बगैर खीझे अनासक्त भाव से मौनावस्था में रहने का प्रयत्न करो।मौन रहने का प्रयत्न करें और अधिक से अधिक काल पर्यन्त डूबे रहे यही साधना अब आपको करनी है ध्यान रहे।लव मात्र भी अगर ज्योति दर्शन हो जाय,तो प्रत्यवाय नहीं है अर्थात वो घटता नही बढ़ता चला जाता है।आप लोग अभ्यास करते है और ज्योति का दर्शन हो रहा है इस ज्योति को हमने धर्म कहा है।जब से आप दर्शन करते है,उस घड़ी से किये गए कर्मों का प्रारब्ध नहीं बनता है।आत्मा को देखकर ,आत्मज्योति में उसका प्रवेश हो जाता है,माने परमशक्ति आपको प्राप्त हो जाती है।
—-किसी बात की चिंता मत करो,सब ईश्वर, गुरुजी पर अर्पित करके आनन्द में डूबे रहो।यदि दुःख न टाल सको तो गुरुदेव की ओर उन्मुख करके स्वयं निश्चिन्त हो जाओ।किसी प्रकार की चिंता करे ही नहीं,तभी समाधि की ओर क्रमशः अग्रसर होंगे।देह या शरीर की चिंता न करें,नाहि घर की,धन की ना ही सदस्यों की,फिर देखिए कैसी मस्ती आती है।आप स्वयं सच्चिदानन्द स्वरूप है।
—-अभ्यास से जो लाइट या प्रकाश मिलता है,उसमें संस्कारों के काजल धुलते है।लाइट के अंदर सदा रहना चाहिए, वह प्रकाश ही मार्ग प्रकाशित करता है।तमोगुण रजोगुण सतोगुण इन तीनों पर जब संयम हो जाता है तब आप उस शरीर में आते है जहाँ आत्मा स्वयं ज्योतिर्भवती।
—-सहज अभ्यास करें तो इस शरीर में जो तीर्थ है वहां स्नान होता है,तुर्यावस्था में आज्ञाचक्र में त्रिवेणी संगम होता है।याने जो सदा इस प्रकाश में स्नान करता है,उसे गंगा यमुना पुष्कर से क्या प्रयोजन?
—-जब बुद्धि(साधना के दौरान)ई नाम शक्ति,जब इनका मेल तीसरी नेत्र,ज्ञाननेत्र में होता है,तो निराकार आत्मा ज्योति रूप में प्रकट हो जाती है।मृत्यु को लांघने के बाद ज्योति दिखती है, नजर आता है,अनेक जन्मों का लेना देना भूत भविष्य सब दिखता है।ये तुरीय अवस्था है,बोधमय शरीर है,उसका शरीर प्रकाशमय हो जाता है।
—-सब हमारे अंदर है हम ही है।अपने आप को पढ़ो, जब तक प्रकाश न मिले,जब आप अन्तर्मुख हो जायेंगे तो प्रकाश आ जायेगा।ज्योति इधर से आयी उधर गयी ये वह स्थिति नहीं है,आपको उसमें रहना होगा।यह एक जन्म की बात नहीं है हजारों बार जन्म लेना पड़ता है।अनेक जन्मों के बाद तब ये तमाम बात होती है।
—-ये जो अभिक्रम है अभि माने भीतर अंदर अंदर में दीप।न नाशम इसका नाश नहीं होता।बाकी जो कर्म करते है उसका नाश।एक बार भी ये बुद्धि शुद्ध हो जाये, आत्मा स्वयं ज्योतिर्भवती।एक बार भी फ्लेश हो जाये, तो सब भयों से मुक्ति हो जाती है।एक बार भी ज्योतिस्वरूप आत्मा का दर्शन हो जाय,उसकी तुलना में दस दस अश्वमेध करने वाले भी नही आते।एक ज्योति के सिवाय ब्रम्हांड में कुछ नहीं है,स्त्री या पुरुष तो बाहरी रचना है,एक आत्मा के सिवा क्या है?
—-अंदर बाहर सब जगह ज्योति है,वो ज्योति हमको दिखाई नहीं देती।लेकिन दिखाई देती है,बिल्कुल दिखाई देती है,बिल्कुल सत्य है।अनन्त सूर्यों का सूर्य है,वही सत्ता है,वह सत है और कुछ नहीं।वो आत्मा है,आत्मदेव है,अनन्त सूर्यों का सूर्य है।आत्मा रूपी सूर्य जब प्रकट हो जाता है तो क्या नहीं हो सकता?अभ्यास इतना करो कि एक आत्मज्योति के सिवाय कुछ न रहे,यह परमब्रम्ह है,यही अहं ब्रम्हास्मि है।
—-सबमें एक ज्योति है ये केवल कहने की बात नही है,यह सत्य है,ऐसा जो देखता है वह सम्यक देखता है।कबीरदास ने आज्ञा चक्र में ज्योति रूप में प्रकट होने पर सोहँ कहा,निरतिशय अवस्था अर्थात ब्रम्हरन्ध्र में स्थापित होकर अहं ब्रम्हास्मि हो गया।ब्रम्हरन्ध्र में संशय निर्मूल हो जाता है क्योंकि वहां न देश है न काल है न भय है न मोह न काम न क्रोध।अनन्त जन्मों का कर्मों का भूत भविष्य की पूरी सफाई हो गई,तब वह परम ब्रम्ह हो गया।मैं या अहं के समाप्त होने पर ही हम उस अवस्था में पहुँचते है,जिसे निर्बीज समाधि कहते है।
एबव टाइम एंड स्पेस।इस स्थिति को प्राप्त करने पर साधक ज्योतिर्मय पिंड हो जाता है।जब साधक अभ्यास करते करते ब्रम्हरन्ध्र में पहुँचता है,तब पूर्ण हो जाता है,ब्रम्हांड ज्योति से भर जाता है।
।।श्री गुरुजी।।

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