
जनम जनम के पूण्य जब उदय होई एक संग !जावय मन के मलिनता तब भावय सतसंग!!
———अर्थात कई जन्मो का पूण्य जब एक साथ उदय होते है व मन निर्मल- निर्विकार होता है ,विकारो से मुक्त होता है तभी मनुष्य का झुकाव सत की ओर होता है ,तब मन [बुध्धि ] का सत=आत्मा ,आत्मा परम है इसलिए परमात्मा कहते है ! जो सर्वत्र कण -कण ,घट -घट में व्याप्त है , सबसे निकट हमारे भीतर आत्म रूप में अंतरात्मा ही है का संग अच्छा लगता है ! कहते है लाखो में कोई एक इसे समझता है और करोड़ो में कोई एक समझ कर इस मार्ग में चलता है!
कहा गया है,कहत कठिन समझत कठिन और समझ में आ भी गया तो आचरण [व्यवहार] में लाना और कठिन ! ये सहज नही है,हर एक के बस का नही है !
———आत्म ज्ञान ,अनेक जन्म संसिद्धि कहा गया है अर्थात अनेक जन्म में होता है , लेकिन ये एक ही जन्म में भी संभव है ! इसके लिए दृढ़ता .संकल्प चाहिए जैसे बाकि चीजो के लिए हममे होती है !
राम चाहिए तो राम ही चाहिए ,राम [आत्माराम] निश्चित मिलेंगे ! विकल्प नही होना कि श्याम मिलेंगे तो भी चल जायेगा ! जीवन का एक निश्चित लक्ष्य , उद्देश्य होंना चाहिए !
———- जैसी प्रित हराम में ,हराम=बाहरी औरो में , नश्वर क्षण भंगुर चिजो में जैसी हमारी प्रीति होती है वैसा ही हरि=परमात्मा [अंतरात्मा ] में हो ,चला जाय बैकुंठ , पला न पकड़े कोय [ बैकुंठ =विशुध्ध चक्र] मृत्यु केंद्र से ऊपर–फिर काम हो गया , हममें पूर्ण सामर्थ होगा,हम ,पूर्ण ज्ञान वान होंगे , हममे अस्ट सिध्धि नव निधि सब होगा , अनहोनी को होनी करने में समर्थ होंगे, स्वयम का कल्याण होगा व औरो के कल्याण [हित ] में भी हम सहायक होंगे –यही मनुष्य जन्म का मूल उद्धेश्य है ,धर्म हैं —