ग्रहणशीलता

—-जीवन में फुर्सत नहीं है ऐसा कहने के साथ आत्मा रूपी सूर्य से आत्म विद्या से दूर चले जाते है।
हर व्यक्ति अपने जन्म जन्मान्तरों में बोये हुए को ही काटता है।भविष्य का बनना पूर्व जन्मों के देना पाने पर निर्भर है।
—-मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का विधाता होता है,अतएव उसे सदमार्ग में सत्कार्य में जैसा बने जितना शीघ्र बने लग जाना चाहिए।
जिसे प्रेम और सत्य कहना चाहिए उस पर चलो।करके दिखाओ आचरण में तब सेवा होगी,इसी से समाज में साफ सुथरे होंगे।
—-कामना वासना का संकल्प न करे,विचार ही समय पाकर मूर्त रूप धारण करता है।कामना है किन्तु निष्काम आत्मानुसन्धान जो है।इससे क्या होता है?ये आधिदैविक,आधिभौतिक,आधिदैहिक ये तीनों ताप दूर हो जाते है।आपकी बुद्धि शुद्ध होकर आत्मा जो परम् है,उसको प्राप्त होंगे।
—-अपना काम है सहन करना।उल्टा उसका हित मन वाणी शरीर से पहुँचाये।
—-आत्मा ही दैविक है।योग की दैविक शक्ति अत्यधिक शक्तिशाली होती है।मन अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है,और सभी घटनाये वैसे ही घटती है,जैसा आप चाहते है।
—-जैसा बताया गया है,वैसा खाली बैठना है चुपचाप।अपने आप होने दो जो होता है।इससे उत्तम और पवित्र करने वाला मार्ग ही नहीं है।इसी जन्म में होता है,आपको बोध हो सकता है।प्रत्यक्ष कर सकते है।अभ्यास उत्साहित होकर करना चाहिए।अपने आप होता है।एक ही जन्म में होता है।
कोई काम का नहीं ,अगर सुषुम्ना को खोलकर ऊपर नहीं आये तो।तभी मुक्ति है।
—-रंगते जाना है ,माने उत्साहित होकर अभ्यास करना चाहिए,रोकर या सुस्त होकर नहीं।
माने तुम अपने आप में समर्पित होओ।आत्मा अपने आप को मुक्त कर लेता है।और ये जो विकार है मन में बुद्धि में,ये ही सब गुण हो जाते है।
यही गुण अब आपकी शक्ति है।तब न सोचते हुए,न करते हुए,सब अपने आप होता है।
मनुष्य को रिसीवर होना चाहिए,रिसीवर हुए की दिव्य शक्तियाँ अपना कार्य प्रारम्भ कर देती है।
।।श्री गुरूजी।।

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