—-पहले आसन दृढ़ होना चाहिए, अनुकूल आसन आचरण में लाना चाहिए।
समय नियत कर ले,और ईष्ट को याद करे।बैठने से श्वास प्रश्वास धीरे धीरे कम होता जायेगा।सब कुछ जो है वो आसन में है।दृढ़ निश्चय के साथ बैठकर सद्गुरु ने जो बताया है,वैसा ही संकल्प के साथ करना।
—-मन बड़ा चंचल है,कभी स्थिर नही होता,लेकिन मन को काम देना।मन जो बहुत दौड़ता है,उसको एक बिग थाट दे दें।उसी को धारणा कहेंगे।
बाद में ध्यान,और समाधि है,बुद्धि जिसमे समाहित हो जाय वह समाधि है।सद्गुरु मार्ग अभ्यास से अपनी इंद्रियों को जीतकर के अहंकार को नष्ट करना चाहिए।
—-मैं शिष्य नही परिवार कहता हूँ, कोई अभ्यास में बहुत आगे चला गया ,कोई बहुत पीछे रह गया,ऐसी कोई बात नही।जो गुरु की अनुभूतियाँ है,सभी दिव्य शक्तियाँ उसी प्रकार से शिष्य में संक्रमित होती है।
अभ्यास में,इस मार्ग में,आपको अनुभूतियाँ होती है,लेकिन बीच बीच में,जो पूर्व जन्म की सिधोरी या तिजोरी बाँध कर आये है,वह तो आपको भोगना ही होगा।अतः निराश या हताश नही होनी चाहिए।बीच में भोग आने से मालुम होता है की हमारी अनुभूति की श्रृंखला टूटी है वह टूटती नही है।इस आधार पर चलते रहेंगे तो आपके हर काम होते जायेंगे,आपको सूझबूझ मिलती है।सारी शक्तियाँ अपने आप प्राप्त हो जाती है।
—-जब तक वो नही मिलता,तब तक अभ्यास छोड़ना नही है,दृष्टा हो करके,मन कहाँ पकड़ता,कहाँ छोड़ता है,यानी औरो को पढ़ने की आपको कोई आवश्यकता नही है,बस अपने आप को पढ़िये।कहाँ आप चुके,कहाँ नहीं।
ऐसा अभ्यास करो की दसो दिशाओ का बोध न रहे,कहाँ हो कौन हो कुछ पता नही।तब वह महान हो गया,यही तुर्यावस्था है,यही षष्टम भूमिका है,वह हंसावस्था को प्राप्त हो जाता है।अखण्डानन्द प्राप्त होकर,गुणो की अभिव्यक्ति होती है,ये गुण ही नवनिधि है।
—-यह आत्मा अपने आप को ज्योति के रूप में प्रकट कर देती है,बाकी उसकी कोई मूर्ति नही ,कोई आकृति नही।सेपलेस है।ज्योति इधर से आयी,उधर गयी,ये वो स्थिति नही है,आपको उसमे रहना होगा।यह एक जन्म की बात नही है।
—-अभ्यास के द्वारा बुद्धि इतनी प्रखर हो जाती है,की सत्य के सिवाय कुछ भी नही रहता,वह जैसा सोचता है,वैसा होता है।वह कहता हैऔर हो जाता है।पहले प्रतिभा जाग्रत हो जाती है,वह एक शक्ति है।
हम परमपद,परमशक्ति को प्राप्त होते है,जिससे आप अपना,समाज का और राष्ट्र का भी कल्याण कर सकते है,सारा हित उसमे निहित है।
।।श्री गुरूजी।।