Dharma – My Opinion

धर्म (जो मैने समझा) धर्म क्या है ? हिन्दू ! मुस्लिम ! सिक्ख !इसाई! यहूदी आदि-आदि ! धर्म का सीधा अर्थ ले, कर्तव्य अर्थात करने योग्य कर्म! अब विचार करें, करने योग्य कर्म अर्थात ‘‘धर्म’’ क्या है? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है- परहित सरिस धरम नहि भाई, परपीड़ा सम नही अधमाई ।। परहित अर्थात दूसरों …

Dhayaan

ध्यान ॐ आदित्य वर्णम – गुरूजी कहते है कि, जैसा आदेश है वैसा आज्ञाचक्र में मन को लगावो, ध्यान करना नही ध्यान में लाना कहता हूँ , ध्यान लगे न लगे जैसा मार्गदर्शन है वैसा आँख बंद कर बैठो, मन बाहर जाता है तो जाने दो, शरीर तो नही जाता ना , धीरे से मन …

Dharma

धर्म कर्म करना धर्म है ! पर कौन सा कर्म ?कर्तव्य कर्म अर्थात करने योग्य कर्म और वह है-निष्काम कर्म !आत्म साक्षात्कार [आत्मज्ञान प्राप्ति ] हेतु किया हुवा कर्म ही निष्काम कर्म है ,बाकी सब सकाम कर्म है !सांसारिक निर्वाह के लिए जो कर्म किया जाता है उसे उपजीविका कहते है ! व आत्म साक्षात्कार …

Aatma

आत्मा निरपेक्ष भाव से कर्तव्य करिये, जगत में रहना है, नही रहकर भी रहना है, न कोई स्त्री है, न पुरुष है, न बेटा है न बेटी है, सब आत्मायें है।ऐसी धारणा ही समत्व योग कहलाती है। शरीर का परिवर्तन है, आत्मा तो सर्वव्यापक है, तो आना जाना कहाँ है?एनर्जी स्थायी नहीं है, अस्थायी है …

Deeksha

दीक्षा दीक्षा जो सद्गुरु से प्राप्त होती है, वह भावों के गूढ़ रहस्य को समझने की प्रेरणा देती है।समूचा कुछ समझ में न आये तो भी चिंता नहीं कम से कम भाव को तो समझने का प्रयास करें।यह सब भी अभ्यास से होगा, अभ्यास से मुँह मत मोड़ो, सभी को शांति अनुभूति आनन्द और जो …

Sandhi

ये स्वर्ण संधि है ये स्वर्ण संधि है ,इसे नहीं छोड़ना चाहिए ! दिया तो अवश्य जलाना चाहिए। आगे मत बढ़ो, समाधि में मत जाओ, कहीं भी मत जाओ लेकिन दिया तो जलाइये। बोलते है न भई सायंकाल हो गया अपने अपने देव घर में दिया जलाओ। देवघर क्या है देव तो इसके अंदर है …

Sarvadharmam Paritayaja

सर्वधर्माम परित्यज्य मामेकम शरणम ब्रज ! ब्रज मायने आवो नहीं जावो होता है ! धर्म मायने धारणा ,अर्थात सभी प्रकार के धारणा को त्याग के मुझ मायने आत्मा [अंतर-आत्मा ]अर्थात अपने शरण में जावो ,आत्मा ही सदगुरु है जो हमारे भीतर शक्ति रूप में विराजमान है, वो सर्वत्र कण-कण में है, व सबसे निकट हमारे …

Atma Sakshatkar

आत्म-साक्षात्कार आत्म-साक्षात्कार के बाद मैदान में उतारो, कोई हाथ नहीं पकड़ता ! कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुन्धरा पुण्यवती च तेन ।अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन् , लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेत: ॥ इसके बाद मनुष्य, पूर्णत: निर्विकार, ज्ञान और सामर्थ् में पूर्ण होता है, वो होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी करने में समर्थ होता है, अष्ट सिद्धि, …