अभ्यास

—-ये जो बीज [दीक्षा ] दिया गया है,ब्रम्ह विद्या दी गई है, धीरे-धीरे अभ्यास करते हुए,उपरामता को प्राप्त कर ,धैर्ययुक्त बुद्धि से मन को परमात्मा-अंतरात्मा में स्थिर करते हुए,दूसरे विचारों को मन में न आने दो ,इससे सारे क्लेश,कर्म,विपाक ये सब साफ होते जाते है।—मेरी ही प्रीति बनी रहे/रहेगी।दृश्य या ध्वनि होते हुए भी मन-बुद्धि …

अद्भुत गीता

योगभ्रष्ट की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा [ श्रीमद्भागवत गीता ] अर्जुन उवाचअयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥भावार्थ : अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग …

कृष्णात्मा

कृष्ण नाम आत्मा का है।जिसने सबको आकर्षित किया है।धारण किया है। हमारा पद जो है-आत्मा है।वो आत्मदेव है। इस आत्मदेव से बढ़कर कोई देव नहीं है।जो हमारे भीतर है। वो सूर्य की तरह प्रकाशित है।अनन्त सूर्यों का सूर्य है। वो तुम्हारा आधार है।वही सत्ता है।वह सत है।और कुछ नहीं। वो दिखे या न दिखे,उसको स्मरण …

ढाई अक्षर प्रेम का या तीन पद से युक्त ऐसा शब्द। जिसे गायत्री कहा गया।जिसका आकार बना दिया गया।जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। पद जो होता है,उसका कोई नाम नहीं। ॐ को ही कहा गया। वो आत्मदेव है। जो अपने में स्थित है।स्थिर है। स्वयं ज्योति है।सूर्य का वर्ण है।स्वर्ण जैसा। वही हमारे अंदर-बाहर,ऊपर-नीचे है।और …

ढाई अक्षर प्रेम का या तीन पद से युक्त ऐसा शब्द। जिसे गायत्री कहा गया।जिसका आकार बना दिया गया।जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। पद जो होता है,उसका कोई नाम नहीं। ॐ को ही कहा गया। वो आत्मदेव है। जो अपने में स्थित है।स्थिर है। स्वयं ज्योति है।सूर्य का वर्ण है।स्वर्ण जैसा। वही हमारे अंदर-बाहर,ऊपर-नीचे है।और …

दृढ़ अभ्यास

—-पहले आसन दृढ़ होना चाहिए, अनुकूल आसन आचरण में लाना चाहिए।समय नियत कर ले,और ईष्ट को याद करे।बैठने से श्वास प्रश्वास धीरे धीरे कम होता जायेगा।सब कुछ जो है वो आसन में है।दृढ़ निश्चय के साथ बैठकर सद्गुरु ने जो बताया है,वैसा ही संकल्प के साथ करना।—-मन बड़ा चंचल है,कभी स्थिर नही होता,लेकिन मन को …

बिंदु

—-उसे फिर से यह शरीर प्राप्त नहीं होता है,शरीर प्राप्त होता है।लेकिन ज्योर्तिमय पिंड है,उसका शरीर ज्योर्तिमय हो जाता है।—-रूप तो खोल मात्र है,अंदर वही है,और मैं ही वही हूँ।स्वरूप चिन्तन के इसी भाव में मगन रहते है।ज्ञानियों का यही भाव है,यही ज्ञान है।—-एक सेल से आप,अनेक सेल में देह पाये है।अब आकुंचन के द्वारा …

बिंदु

—-उसे फिर से यह शरीर प्राप्त नहीं होता है,शरीर प्राप्त होता है।लेकिन ज्योर्तिमय पिंड है,उसका शरीर ज्योर्तिमय हो जाता है।—-रूप तो खोल मात्र है,अंदर वही है,और मैं ही वही हूँ।स्वरूप चिन्तन के इसी भाव में मगन रहते है।ज्ञानियों का यही भाव है,यही ज्ञान है।—-एक सेल से आप,अनेक सेल में देह पाये है।अब आकुंचन के द्वारा …

मौन

अभ्यास, निष्काम कर्म धर्म रूप बन जाये,तो वह ऐसा व्यसनी हो जाता है कि रात और दिन बगैर बोले चाले उसके मुँह से हरे राम हरे कृष्ण निकलते रहता है।वो कार्य करता रहता है तो भी निकलते रहता है,सब काम करते वो होते रहता है।वो उसका धर्म बन जाता है,माने निश्चल अटल हो जाता है। …