दीक्षा
दीक्षा जो सद्गुरु से प्राप्त होती है, वह भावों के गूढ़ रहस्य को समझने की प्रेरणा देती है।समूचा कुछ समझ में न आये तो भी चिंता नहीं कम से कम भाव को तो समझने का प्रयास करें।यह सब भी अभ्यास से होगा, अभ्यास से मुँह मत मोड़ो, सभी को शांति अनुभूति आनन्द और जो जो चाहिए सब मिलता चला जायगा, भूमि दृढ़ होती जायगी आप सामर्थ्यवान बनते जायेंगे, समाज का उपकार, अपना उपकार इसी से होते चला जाता है।जो सत्य मुझे मिला वही मैंने दीक्षा के रूप में दिया
इस मार्ग(आत्म)में मस्ती है आनन्द है, लोगों को यह(सत्य)प्राप्त हुआ है, इसी जन्म में प्राप्त हुआ है, धैर्य धारण करना चाहिए।धैर्यपूर्वक आचरण करो।मुक्ति के लिए घर परिवार के बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, गृहस्थ रहकर भी लोग मुक्त है। आत्मज्योति यह इतना सुंदर है कि उसमें लीन होने से सब कुछ आनन्दमय हो जाता है, पाप पुण्य से परे हो जाता है।
हम अपने स्वरूप को भूल गये, बलहीन हो गये थे, आत्मा की शक्ति को पहचानने, प्राप्त करने से हम पुनः समर्थ हो सकते है।मेरा एक ही कार्य है एक ही पुरुषार्थ है एक ही लक्ष्य है, वही जिसे मैंने अपनाया है, यह विद्या है आत्मविद्या, यही वास्तविक विद्या है, यह देने से बढ़ती है, इस विद्या से युक्त होकर समाज के प्रति हम कर्तव्य करे उसे औरों को बाँटे।समाज से अलग रहकर, पलायन कर, निषेध कर जीने का कोई अर्थ नहीं है।
सबके साथ रहकर आदर्श होना ही सच्चा आदर्श होना है, आदर्श(माने भक्त)वही है जो विभक्त नहीं है, आदर्श! ये आदर्श सत्पुरुष सतगुरु के संग रहने से आते है।जंगल में भागने से यह विद्या प्राप्त नहीं होती।कामना, वासना इच्छाएं जगी, इसी से बचना है, कामनाओं के पीछे, भागमभाग से मुक्त होकर आत्ममार्ग में लगना है।यह मार्ग उन सबके लिए है जो चैतन्य होना चाहें।पहले परिवार में, फिर कुटुम्ब में, समाज में प्रतिष्ठा क्रमशः प्राप्त होती चली जाती है। आत्मविद्या का साधक सर्वत्र पूजा जाता है।
एक दूसरे में गुण ढूंढना जो है, वह भी मात्र अभ्यास से सम्भव है।इसी अभ्यास से साधक अहं से मुक्त होकर सिद्धावस्था तक पहुँचता है। शब्द ब्रम्ह और परब्रम्ह दोनों विधाओं का ज्ञान इस आत्मविद्या से ही सम्भव है।
श्री गुरुजी वासुदेव रामेश्वर जी तिवारी